‘ सुधियाँ उस चंदन के वन की’ क्यों पढ़ें?



साहित्य अपनेपन की खोज रखने वाले हाथों का सबसे सटीक हासिल  है। यहाँ हर भावना आत्मा की उतनी ही जीवंत घटना है जितना भौतिक है किसी बीज का धरती फोड़ते हुए ज़मीन पर जाना। हम इस दुनिया में रहते हैं, एक दूसरे से मिलते हैंरिश्ते बनाते हैं और लड़ाइयाँ करते हैं साहित्य इस यात्रा को एक सटीक भाषा देता है। सिर्फ़ भाषा बल्कि हमारे जिए हुओं का लेखा जोखा। हमारे पुरखों के अपनापे और उनकी दुनियाइन किताबों के ज़रिए हमारे आज का दरवाज़ा खटखटाती है।


 ऐसी ही किताब हैविष्णु कांत शास्त्री की-  ‘ सुधियाँ उस चंदन के वन की विधा है -संस्मरण और यात्रा वृत्तांत यूँ तो इसकी भाषा खड़ी बोली हिंदी का वही तत्सम सामान्य रूप है जिसे हम आम तौर पर अख़बारों या द्विवेदी युगीन किताबों में पढ़ते हैं लेकिन कई मायनो में यह किताब  बहुत रुचिकर  और हमारे समय से आगे जान पड़ती है। 




पहली ख़ास बात है - लेखकविष्णु कांत शास्त्रीका व्यक्तित्व वह पश्चिम बंगाल भाजपा के 2 बार अध्यक्ष, 1988-93 के बीच बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, हिमाचल यूपी के राज्यपाल रहे। किंतु इनका राजनीतिक व्यक्तित्व इन संस्मरणो में जिस तरह ध्वनित हुआ है, उसने निखार ही पैदा किया है। नाम वार सिंह पर लिखे आलेखरणनीति को वरीयतामें इसे देखा जा सकता है।


 पूरी किताब में लगभग सभी संस्मरणो में वह उस हिंदुत्व से प्रभावित नही दिखते जो, सावरकर या बीजेपी का था, बल्कि वह उस हिंदू दर्शन से प्रभावित दिखते हैं - जिसमें विचारों की असहमतियों का स्वागत है और उससे कहीं आगे अपने लोगों - चाहे वह किसी भी विचार के हों, के साथ एक एक सघन अपनापा है। बात  बात पर संस्कृत के वह श्लोक,जिनका अर्थ दुनिया को और ज़्यादा सुंदर जगह बनाता है, इस किताब में दिए गए हैं, जिन्हें अज्ञेय जी, नामवर जी जैसे विद्वान अपनी डायरियों में रुक कर लिख लिया करते थे।


दूसरी ख़ास बात है - किताब का कथ्य। किताब में कुल 12 आलेख हैं। स्वामी अखंड नंद सरस्वती, महादेवी वर्मा, अज्ञेय, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, गांगेय नरोत्तम शास्त्री , नामवार सिंह, उमा शंकर जोशी आदि पर संस्मरण हैं और गुजरात और सूरीनाम, गुयाना  आदि देशों से जुड़ें यात्रा वृत्त भी। 


इन्हें पढ़ते हुए आप अपने लेखकों के गम्भीर और चुहलभरे -दोनो पक्षों को जान पाते हैं। जैसे अज्ञेय - चमत्कार के बारे में क्या सोचते थे और उनके साथ ऐसी क्या घटना हुई जिसने उन्हें आस्तिकता की तरफ़ सोचने के लिए मजबूर किया था।महादेवी वर्मा का सबसे बड़ा रोष क्या था? नामवर सिंह ने वह दिल्ली आने पर कौन सी तीन क़समें खाई थीं,जिसमें से एक का लेखक के अनुसार पालन नही कर सके। एक विधायक की यातना क्या होती है,जो राजनीति और साहित्य के बीच झूल रहा हो और सबसे महत्वपूर्ण भारत से बाहर जो हिंदी भाषी देश है क्या वहाँ हिंदी की क्या स्थिति है? इन सब सवालों में रुचि है -तो आप इसे पढ़ सकते हैं

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें