'तुम्हारी औकात क्या है पीयूष मिश्रा' पढ़ें या न पढ़ें ?

 लल्लनटॉप पर कुछ दिनों पहले पीयूष मिश्रा का इंटरव्यू देखा।शो था गेस्ट इन न्यूज रूम। पीयूष के व्यक्तित्व सी , एक टूटती लय में भी घटनाओं और संवादों का बनता प्रवाह।  उसी दौरान इस किताब के बारे में मालूम हुआ - 'तुम्हारी औकात क्या है पीयूष मिश्रा'   इंटरव्यू देख कर ही इसे पढ़ने की दिलचस्पी बढ़ गयी थी। इसे पढ़ने के बाद मुझे लगा कि इस पर कुछ लिखा जाना चाहिए, जो इस किताब को  पढ़ कर मुझ में पीछे रह  गया है। अब यह  आपके समक्ष  है।


अकेलापन कलाकार होने की त्रासदी है। आवारापन रचनाकार होने की नियति। यह शब्द मैंने 2016 में लिखे अपने 'मां के नाम खत' के आखिरी पैरा में लिखे थे। जब पीयूष जी की इस उपन्यास नुमा  आत्मकथा को पढ़ रहा था , भीतर इन्हीं दो लाइनों की रौशनी पन्ने दर पन्ने रास्ता दिखा रही थी। 


मुझे हमेशा इस बात ने बहुत परेशान किया है कि जिनकी किताबें पढ़ कर हम जीवन मे एक व्यवस्था बना पाने  , एक ऑर्डर साधने की तरफ बढ़ते हैं ,उनमें से कइयों ने अपनी जिंदगी  कितने 'नही समझे जा सकने वाले ' डिसऑर्डर्स  के बीच गुज़ारी  है।बौद्धिक त्रासदियों के कलाईमैक्स से थोड़ा अलग  पीयूष जी की यह किताब एक अव्यवस्था के भीतर से जन्म लेती व्यवस्था है। बिखरे  हुई जल वलयों  का अनुकूल समय- समतल पर ठहर कर एक  थिर - समग्र  प्रवाह बन जाना है।


सच के साथ एक समस्या है।वह अपनी बारीकी में कभी बहुत ज्यादा आकर्षक नहीं हो पाता। बारीक यथार्थ हजम होने में अपच देता है। हम उसे भदेस, स्तरहीन, अतिरंजित या अश्लील कह देते हैं लेकिन उससे नजरें नहीं चुराई जा सकती। इसलिए यह किताब असल में दोतरफा 'औकात' दिखाती जान पड़ती है। पाठक के तौर पर हमारी और साक्षी के तौर पर स्वयं पीयूष की। इसलिए उन्होंने इसे लिखते हुए एक टैक्टिक का प्रयोग किया है - उपन्यास विधा से कल्पनात्मक छूट की सुविधा  ले कर एक ईमानदार आत्मकथा। इस सुविधा  के साथ वह ये तो लिख ही सकते हैं, जो उन्होंने जिया है , साथ वो  भी, जो वे जीना चाहते थे ,या वो  ,जो  नहीं जीना चाहते थे।


किताब के भीतर के मजमून पर यहां के बराबर लिख रहा हूँ। उसे पढ़ कर ही समझा जाना चाहिए। यह फ़ीचर पुस्तक समीक्षा नहीं  है यहां लिखा हुआ उसका पाठ्य पश्चात प्रक्षेपण है ,जो किसी किताब से गुजरने के बाद अव्यक्त ईश्वर सा पाठक के अस्तित्व में अटक जाता है ,और बिना लिखे पीछा नहीं छोड़ता। मोटे तौर पर यह एक कस्बाई मध्यवर्गीय परिवार में जन्मे बच्चे संताप की नारकीय परवरिश , पीछा छोड़ता हुआ परवरिश का अधूरापन , मुक्ति के लिए शराब की गिरफ्त और  सम्हालती कला, इन सब के बीच टिका हुआ अपना नायक - यह जिंदगी की इन्हीं भंगिमाओं का एक रंगमंच है, जिसका अंत उतना दुखद नही ,जितनी शुरुआत। 






यह उपन्यास सिर्फ एक  लेखक का अपना जीवन भर नही है इसमें ग्वालियर है, दिल्ली है, बॉम्बे है। एनएसडी है, एक्ट वन है और लगभग पूरा मंडी हॉउस  प्रकट हो गया है। चर्चित सहकर्मियों के  लेखक से जुड़े हुए दिलचस्प और कुछ मीडियाकर  से प्रसंग हैं ,जिससे उस समय के सांस्कृतिक यथार्थ की एक झलक पाई जा सकती है 1983 से 2003 तक दिल्ली में थियेटर और फिर सिनेमा ; इसे पढ़ते हुए थियेटर और एक्टर के बीच का तनाव  और इनके मध्य का रास्ता बनाते पुलों के आप सहयात्री बन  जाते हैं रेणु की भाषा मेंयहाँ शूल हैं तो फूल भी ‘ - मिस जिंजर है, संगिनी है, उर्वशी है और प्रिय कलत्र जिया भी। डर, कुंठा, नेह, नफरत , दोस्ती ,धोखे , भटकन , बिगड़न , बनन और वह सब कुछ है , जो  जिंदगी को 'कुछ होने' के बोध से भर देता है



इस किताब से तीन उम्मीदें (हालांकि उचित जवाब के साथ ) बची रह गईं पहली , इस किताब की पूरी भंगिमा और घटनावली इस तरह है कि पढ़ कर मन में उदात्त का सृजन नही होता। शायद इस वजह से भी कि लेखक का उद्देश्य ही है कि ईमानदारी से भीतर को टटोला जाए ताकि उदात्तता से ज्यादा पाठक उलझन महसूस करे।  दोहरेपन पर खीझे और आवरणों को तोड़ सके। इसलिए उदात्तता का अपेक्षा ही क्यों करना।


दूसरा ,यदि किताब डायरी नुमा  टुकड़ों की जगह चैप्टर्स में होती है तो इसकी अर्थ व्यवस्था और बारीक बन पड़ती। हालांकि यह मेरा अतिरिक्त आग्रह है। अव्यवस्था का कथ्य लिए कोई किताब भला एक व्यवस्था में कैसे बुनी जा सकती है। तीसरा , यह जरूर आत्मकथा है तो लेखक केंद्र में ही होना चाहिए लेकिन यदि परिवेश को और ज्यादा(अभी भी  जगह दी गयी हैजगह दी जाती तो हम बारीक नजर रखने वाले लेखक की निगाह से उस समय के सांस्कृतिक यथार्थ को बहु आयामिता से पकड़ पाते।


 इस किताब का भाषाई पक्ष लाजवाब है। छोटे - छोटे वाक्य। विजुअल संवाद। शब्दों  के मामले में किफायती यह उनका एक नया रूप है। नए तरह का गद्य। चुस्त, जीवंत और तना हुआ। यही इस किताब की भीतर से तरबियत है। आप इसे बेईमानी के साथ नहीं पढ़ सकते। अपने भीतर के गुनाह इसे पढ़ते हुए सामने से गुजरने लगते हैं। आप मुहं नही मोड़ सकते। कुछ ऐसे वाकये हैं जो बर्दाश्त भी नही होते, बस स्वीकार होते हैं। अपने को भी औऱ एक आर्टिस्ट को भी।  यह घासलेटी साहित्य नही है ,इसलिए साहित्य की दुनिया इसे अगम्भीर्य कह कर दरकिनार भी नहीं  कर सकती।


यह अपने समय की मेहनतों का , उठा पटकों, बन चुकी प्रतिभाओं  के बनन का तड़कता भड़कता यथार्थ है। कला की किसी भी विधा के द्वारा इसे नजरंदाज नही किया जाना चाहिए, जैसे कि पीयूष  ने अपने जीवन मे लगभग सभी कलाओं के साथ प्रयोग और उन प्रयोगों में न्याय करने की कोशिश की  है शिद्दत से गिर कर - उठ कर हर कला को साधने का सौंदर्य - यही आपकी  'औकातहै पीयूष मिश्रा- यही तुम्हारी उपलब्धि है पीयूष मिश्रा।




आशुतोष तिवारी


टिप्पणियाँ

  1. शानदार, आपका ब्लॉग पढ़कर मज़ा आ गया आशुतोष भाई....

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  2. मैं क्यूँ आपकी तरह लिख या बोल नहीं पाती.. पर सुकून है कि समझ पाती हूँ. समझने योग्य बनाने के लिए शुक्रिया आपका❤️❤️..
    मैं दुख में बेचैनी कम करने के लिए या तो आपको ढूँढती हूँ या ढूँढ ढूँढ के आपके पुराने पोस्ट पढ़ती हूँ

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