कला और साहित्य का सृजन किसी के निर्देश पर नहीं होता। कला
की सिर्फ एक ही मर्यादा है ,वह है सृजन। हाल ही में रिलीज़ हुई आमिर खान
अभिनीत फिल्म पीके का विरोध दिन पर दिन उग्र होता जा रहा है।पीके के विरोध में
प्रदर्शन करने वाले दक्षिणपंथी संगठनो का आरोप है कि इस फिल्म में हिन्दू देवी
देवताओं ,धर्मगुरुओं का मज़ाक उड़ाया गया है। गुजरात के अलावा उत्तर
प्रदेश के आगरा, मऊ तथा मध्यप्रदेश के भोपाल में प्रदर्शन जारी रखते हुए इन संगठनो
द्वारा ‘अखिल भारतीय प्रदर्शन’ की चेतावनी भी दी गयी है।इस तरह के विवादों ने एक अहम सवाल
उठाया है कि क्या संस्कृति में असहमति कि गुंजाइश समाप्त हो रही है ?
पीके इस तरह का विरोध सहने वाली पहली फिल्म नही है। इसके
पहले भी 'फायर ' 'परजानिया ' 'ख़ुदा के लिए विश्वरूपम
तथा ओ माय गॉड को लेकर भारी हंगामे हो चुकें हैं। .विश्वरूपम के विरोध से आहत होकर
अभिनेता कमल हसन ने सेकुलर स्टेट तलाशने तक
की बात कह डाली थी। .अमर्यादित सृजन
के आरोप मे ही मक़बूल फ़िदा हुसैन ,तस्लीमा नसरीन और सलमान रुश्दी तक को अपना
देश तक छोड़ना पड़ा। कलाकारों पर अमर्यादित सृजन एक ऐतिहासिक आरोप रहा है। .प्रतिरोध
नागरिक का संवैधानिक अधिकार है। पीके फिल्म पर धार्मिक मर्यादा तोड़ने का आरोप लग
रहा है पर विरोध की मर्यादा या अमर्यादा कैसे तय होगी। वैधानिक विरोध का तरीका भी
वैधानिक होना चाहिए।सार्वजानिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाकर (जैसा कि हो रहा है
)कुछ भी हासिल नही किया जा सकता है। यदि दक्षिणपंथीं संगठनो को पीके से कोई शिकायत
है तो उनके सामने दो वैधानिक विकल्प सदैव खुले हुए है। पहला यह कि वह अपना आरोप
लेकर अदालत जा सकते है दूसरा यह कि वह इस
फिल्म के विरोध को अपनी आस्था को उचित साबित करती हुई फिल्म बना सकते है। किसी माध्यम
का जबाब उसी माध्यम में बेहेतऱीन तरह से दिया जा सकता है।
पीके फिल्म सेंसर बोर्ड से प्रमाणपत्र प्राप्त कर चुकी है। इस
तरह के विवाद सेंसर बोर्ड कि अहमियत पर भी सवाल उठाते हैं। सेंसर बोर्ड एक वैधानिक
संस्था है जिसमे विशेषज्ञों द्वारा किसी फिल्म को प्रमाणपत्र दिया जाता है। यदि एक
बार फिल्म सेंसर बोर्ड से पास हो गयी है
तो उसे समाज से प्रमाणपत्र लेने कि क्या आवश्यकता है। विश्वरूपम के विरोध पर ‘जावेद अख्तर’ ने कहा था कि 'यह गैरमुनासिब है
,आखिर सेंसर बोर्ड
कि अहमियत क्या है।‘ १४ अंतर्रास्ट्रीय
पुरस्कार प्राप्त कर चुकी फिल्म 'फायर 'का विरोध होने पर जब केंद्र सरकार ने उसे पुनः सेंसर बोर्ड
के पास भेज दिया तो भारतीय फिल्म निर्देशन एसोशिएशन ने उसका कड़ा विरोध किया ।आदर्शतः
सरकारों को ऐसे विरोधों के दौरान फिल्म के साथ खड़ा होना चाहिए वरना सेंसर बोर्ड कि
आवश्कता पर ही सवाल खड़े हो जायेंगे।
फिल्म पीके ने वैज्ञानिक आधार पर सभी धर्मों के
अंधविश्वासों का खंडन किया है ।संविधान के अनुच्छेद 51(A) के अनुसार हर नागरिक का कर्त्यव्य है कि वैज्ञानिक सोच का
निर्माण करे ।राजकुमार हिरानी और आमिर खान ने अपने -अपने संवैधानिक कर्तव्यों का
फिल्म के माध्यम से पालन ही तो किया है।प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी देश को
सम्बोधित करते हुए कहा है कि 'तब तक गरीबी नही मिट सकती जब तक अंध श्रद्धा का निर्मूलन नही होगा।फिर इतना विवाद क्यों है? दरअसर ऎसे विवादों कि जड़ कही और है। यह एक तरह कि ‘सांस्कृतिक गुंडागर्दी’ है। जगदीश्वर
चतुर्वेदी ने अपनी किताब ‘साम्प्रदायिकता
आतंकवाद और जन माध्यम’ में सांस्कृतिक
गुंडागर्दी को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि “सांस्कृतिक
गुंडागर्दी मुख्यतः फासीवादी फिनोमिना है। यह मूलतः भाषा,पहनावा, फैशन साहित्य, सिनेमा और स्थापत्य, चित्रकला आदि पर
हमला करता है। इस फिनोमिना का प्रयोग साम्प्रदायिक तथा पृथकतावादी संगठन समय- समय
पर करते रहे है। जीवन शैली भाषा व ललित कलांए इसके निशाने पर है।‘जगदीश्वर चतुर्वेदी’ की यह बातें इस
विवाद के सन्दर्भ में काबिलेगौर है।
इस विवाद के साथ जुड़ा एक अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष ‘मर्यादित सृजन’ से सम्बंधित है ।कलाकार
का काम दर्शक कि चेतना और द्रष्टिकोण को सम्बोधित करना है किन्तु इसके लिए कलाओं
को दर्शक कि चेतना के स्तर पर नही उतारा जा सकता। कलाओ का लक्ष्य
तो दर्शक कि चेतना को विस्तृत करना है, उसे कलात्मक चेतना तक लाना है। दर्शक कि चेतना समुन्नत करना है। ‘पीके’ फिल्म के विरोधी
यह मांग कर रहे है कि कलात्मक चेतना को सामान्य दर्शक कि चेतना के स्तर पर उतारा
जाये ।.इससे तो कला का स्तर ही गिर जायेगा।
एक अंतिम सवाल यह भी है कि क्या किसी फिल्म के बैन होने से
धर्म कि संपूर्ण रक्षा हो जाती है? ।धर्म कि रक्षा
तो धर्म के भीतर के पाखंड और ‘बाबावाद’ को उघाड़ने से होगी।
यदि यह फिल्म किसी की आस्था को आहत करती है तो उसे अदालत जाना चाहिए ।तोड़फोड़ व सड़क
जाम करने से बेजा सार्वजनिक जीवन में असुविधा हो रही है।
आशुतोष तिवारी ,
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