'विकास विरोधी' किसान नही बल्कि 'किसान विरोधी' आप है |


 भारत में यदि भूमि अधिग्रहण के इतिहास का अध्ययन किया जायेगा तो अंग्रेजी राज अधिग्रहण के इतिहास का सबसे काला अध्याय साबित होगा| अंग्रेजो ने 1894 में भूमि अधिग्रण के लिए एक ऐसा कानून बनाया जिसके जरिये वह  भू मालिक की सहमति लिए बगैर जमीन हड़पकर उसे भूमिहीन कर सकते थे | यह कानून ब्रिटिश साम्राज्य्वाद का एक ऐसा वृक्ष था जिसकी छाँव में भूमि की खुली लूट का खेल अंग्रेज(काले और गोरे ) सरेआम  खेला करते थे| समय बदला और इतिहास का साम्राज्य्वादी दौर समाप्त हुआ | अंग्रेज इस कानून को यथावत भारत में छोड़कर चले गए| आजादी के बाद इस कानून का लगातार विरोध होता रहा | सामाजिक संगठनो ने इस कानून के खिलाफ कई बड़े -बड़े आंदोलन किये | नक्सलवादी , तेभागा और तेलंगाना जैसे आंदोलनों का जन्म इस कानून के विरोध में ही हुआ |अनवरत भरी विरोध के के चलते 1894 के इस कानून में बदलाव की जरुरत सभी को महसूस होने लगी | हलांकि तब तक हज़ारो किसान आत्महत्या कर चुके थे और कई युवा आंदोलनों में शहीद हो चुके थे | आखिरकार सभी दलों  ने एकजुट होकर 1894 का अंग्रेजी कानून हटाकर 'उचित मुआवजे का अधिकार एवं भूमि अधिग्रहण में पारदर्शिता, पुनर्वास , एवं पुनर्स्थापन अधिनियम 2013 ' को संसद में पारित किया| इस कानून के अंतर्गत व्यापक जन सहमति , सामजिक प्रभाव आकलन  तथा बाजार दर पर मुआवजे के अधिकार को शामिल कर इसे जनपक्षीय बनाया गया | इस कानून के पारित होने पर देश के किसान वर्ग ने स्वागत किया पर पूंजीपति खेमा परेशान नजर आया | कानून पारित होने के बाद 1 साल का भी समय नही बीता और कई राज्यों की सरकार इसे 'विकास विरोधी' बताने लगी| विकास के मुद्दे पर ही लोकसभा चुनाव जीत कर आई मोदी सरकार ने आनन -फानन में इस कानून में संशोधन कर एक नए अधिनियम का बिना विमर्श किये अध्यादेश जारी कर दिया |अब सरकार इस अध्यादेश को संसद में पारित कराना चाहती है |2014 के इस अध्यादेश का देश के कॉर्पोरेट वर्ग ने तो स्वागत किया है  पर 160 से अधिक सामाजिक संगठन , विपक्ष , सरकार के घटक दल सहित देश के किसान इस अध्यादेश के विरोध में सड़क पर उतर आये हैं | सरकार  ने बातचीत के संकेत तो दिए हैं पर व्यापक सहमति बनती अभी तक दिख नही रही है|
भूमि अधिग्रहण  एक गंभीर मसला है| एक तो यह विषय जटिल है दूसरा इस मुद्दे पर इतने तथ्यों की भरमार है कि आम आदमी भ्रमित हो रहा हैअतः यह जानना जरुरी है कि २०१३ के कानून में कौन  से प्रावधान थे जिनमे सरकार संशोधन कर कौन से नए प्रावधान लाना चाहती है | २०१३ के कानून में पहली बार अधिग्रहण से पड़ने वाले सामाजिक प्रभाव के आकलन कि व्यवस्था कि गयी  |पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप परियोजनाओ के लिए 70% तथा निजी परियोजनाओं के लिए 80%जन सहमति का प्रावधान किया गया |बाजार मूल्य पर २-४ गुना(गाँव में ४ तथा शहर में २ गुना) कीमत पर मुआवजे का नियम बनाया गया | अधिग्रहण के बाद यदि जमीन का पांच साल तक प्रयोग नही किया जाता तो जमीन मालिक को या 'स्टेट लैंड बैंक' को सौंपने कि व्यवस्था कि गयी |बहु फसली तथा उपजाऊ जमीन के अधिग्रहण  को विशेष परिस्थितिओं में ही मान्य ठहराया गया |किन्तु मोदी सरकार ने 'सामाजिक प्रभाव आकलन' कि व्यवस्था को 'विकास में देरी' का कारण बताकर समाप्त कर दिया है| भारत कि रक्षा जरुरतो , गाँव में बिजली ,सड़क सिंचाई राजमार्ग इत्यादि के निर्माण,गरीबो के लिए सस्ते आवास , हाईवे से सटे औद्योगिक गलियारे के निर्माण तथा पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप परियोजनाओं के लिए अधिग्रहण में 'जन सहमति' कि व्यवस्था को 'जटिल प्रक्रिया' का हवाला दे समाप्त कर दिया है |मुआवजे तथा पुनर्वास कि व्यवस्था पुराने कानून कि तरह ही है लेकिन 5 साल काम न होने पर जमीन वापसी के प्रावधान को 'बड़े प्रोजेक्ट्स में समय लगता है ' कहकर हटा  दिया है | राष्ट्रीय सुरक्षा ,रक्षा  तथा ग्रामीद इंफ्रा इत्यादि के लिए बहुफसली तथा उपजाऊ जमीन के अधिग्रहण को जायज ठहराया गया है | अरुण जेटली ने ब्लॉग लिखकर इन संशोधनों को विकास के लिए अति आवश्यक बताया है।
भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पर हाल ही में कई सवाल उठे हैं |सबसे महत्वपूर्ण सवाल 'सहमति ' से जुड़ा है |पूरी दुनिया मे अधिग्रहण जमीन छीन कर नही बल्कि  खरीद कर होता है | भारत में यह ऐसा पहला कानून है जिसमे सहमति के प्रावधान को ही समाप्त कर दिया गया है | यदि सरकार को70% सहमति जटिल लगती है तो यह प्रतिशत 41 -51% के बीच किया जा सकता है पर सहमति कि व्यवस्था तो होनी ही चाहिए |लाइन प्रोजेक्ट्स (सड़क,रेल , नहर ) के लिए अनिवार्य अधिग्रहण कि व्यवस्था से किसी को परहेज नही है पर पीपीपी परियोजनाओं के नाम पर कोई प्राइवेट इंटिटी किसान की जमीन पर मुनाफा कमाए इसे कोई कैसे जायज ठहरा सकता है |किसान भूमि अधिग्रहण कि प्रक्रिया के व्यवहारिक दोषों का भुक्तभोगी रहा है | इतिहास बताता है कि किसान हर अधिग्रहण का विरोध नही करते |जब वो यह देखते हैं उनसे ली गयी जमीन प्राइवेट पार्टियां महंगे दामो पर १ साल में बेच देती हैं तो वह ठगा हुआ महसूस करते हैं | नोयडा व ग्रेटर नोएडा के ऎसे ही मामले में हाई कोर्ट ने टिप्पड़ी करते हुए खा था कि 'कोई भी व्यक्ति या संस्था रोजगार देने के लिए व्यापार नही करती |उनका (कम्पनियो ) मकसद सिर्फ मुनाफा कामना है | इसीलिये जिन किसानो कि जमीन ली गयी है उन्हें पूरा हक़ है कि वह उस मुनाफे के हिस्सेदार बने | यही वजह है कि उन्हें बाजार मूल्य से बेहतर मुआवजा देने के लिए कहा गया है |
हाल ही में कैग(CAG ) ने सेज़(sez) पर एक रिपोर्ट जारी कि है | इस रिपोर्ट में बताया गया है कि सेज़ के नाम पर 45 हज़ार हेक्टेयर जमीन किसानो से ली गयी है जिसके 38% हिस्से पर अभी तक कोई काम नही हुआ है |ज्यादातर जमीन 'सार्वजनिक हित 'के नाम पर ली गयी थी और इसके लिए निजी कंपनियों ने भरी मात्र में लोन भी लिए थे | प्रश्न यह है कि जब पहले से ली गयी अधिकतर जमीनो पर कोई काम नही हो रहा हैं तो नए अधिग्रहण को लेकर इतना उतावलापन क्यों है |
भूमि समवर्ती सूची का विषय है |अतः राज्य मुआवज केंद्र के निर्देशानुसार (२-४ गुना ) देने के लिए स्वतंत्र हैं | श्री निवासंन जैन कि एक रिपोर्ट बताती है कि हरियाणा सरकार ने मुआवजे कि एक ही राशि(गाँव या शहर ) तय कर दी है जबकि राज्य को यह छूट है कि वह जगह के हिसाब से मुआवजे कि राशि २ से ४ गुना तक तय का सकती है |सवाल यह है कि शहर व गाँव कि जमीन का एक ही रेट किस सिद्धांत के अनुसार तय किया गया और यदि किया भी तो अधिकतम क्यों नही |दूसरे राज्य कि सरकारें  भी मुआवजे के सवाल पर कुछ ऐसी ही दिशा में अग्रसर हैं |
चहुँतरफा विरोध के बाद सरकार ने बदलाव के संकेत दिए हैं |सरकार कह  रही है कि पीपीपी परियोजना के तहत अधिकृत जमीन पर सरकार का ही मालिकान हक़ रखा जायेगा |इंडस्ट्रियल कॉरिडोर के लिए सड़क से केवल १-२ किलोमीटर कि जमीन का ही अधिग्रहण किया जायेगा | सहमति तथा सामाजिक प्रभाव आकलन के प्रावधान और भी स्पष्ट किये जायेगे |गौरतलब है कि यह सिर्फ संकेत हैं और संकेतो से यथार्थ  का कोई सीधा आकलन नही किया जा सकता | संक्षेप में अभी भी 'कुछ कह नही सकतेवाली स्थति बरकरार है |
जबरन भूमि अधिग्रहण का खेल सभी सरकारों ने खेला है | टप्पल ,भट्टा परसौल ,हरियाणा .सिंगुर तथा नंदीग्राम की जमीने अधिग्रहण के  इन खेलो की गवाह हैं |सामाजिक कार्यकर्ता मेघा पाटकर ने सही ही कहा कि'यह हास्यास्पद होगा , अगर उपनिवेशवादी तरीके से जमीन का अधिग्रहण किया जाये और बिलकुल ध्यान न दिया जाये कि इसका लोगो , पर्यावरण और सामाजिक लिहाज से क्या असर होगा|' सरकार को भी यह संमझना होगा कि किसान विकास विरोधी नही हैं | किसानो ने मर्जी से  देश के लिए अपनी जमीने दी हैं और कई अधिग्रहणों में वह स्वयं ठगा गया है | सरकार को इस गंभीर मुद्दे पर सतर्कता से निर्णय लेना चाहिए क्योकि चन्द्र बाबू नायडू और पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे कि सरकारें किसानो के ऎसे ही आक्रोश की भेंट चढ़ गयी थी |
आशुतोष 

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