क्या आदर्श राज्य
का विचार यूटोपिया हो चूका है ?क्या 'आम आदमी पार्टी ' आम राजनीतिक दलों की फ्रैश फोटोकॉपी बनने जा रही है|
यह सवाल आप के अपने वालंटियर्स के जेहन में तो
है ही साथ में उनके मन को भी परेशान कर रहा है जिन बुद्धिजीवियों ,पत्रकारों ने पार्टी की सदस्यता लिए बगैर अपना
बौद्धिक निवेश आप में किया था | यह सवाल दिन पर दिन सच्चाई में तब्दील हो रहा
है| तो क्या व्यवस्था
परिवर्तन का विचार एक कल्पना है? क्या क्रांति की
बातें हमारी ऐसी कमजोरी हैं जिनका सपना
दिखाकर कोई भी मुन्ना (नेता) हमारा कीमते सामान (वोट) लेकर गायब हो जाता है और हम
समस्यायों के घाट पर फिर से 5 साल तौलिआ लपेटे खड़े रहते हैं (शरत जोशी का एक कालजयी
व्यंग्य )|जब देश की चुनिंदा
बौद्धिक पूंजिया अपना चालू चरित्र दिखाएंगी तो हाल-फ़िलहाल किसी विराट परिवर्तन को
कल्पना ही कहना चाहिए |
आप में जारी
आतंरिक संघर्ष की घटनाएँ नयी (आज-कल ) नहीं हैं |इसकी जड़ें अन्ना आंदोलन के उत्तरोत्तर काल तक जाती हैं |इस देश में एक ऐसा वर्ग है जो 'व्यवस्था परिवर्तन की उत्सुकता',क्रांति न कर पाने की छटपटाहट ' से हर दिन गुजरता है | यह कोई अक्सर
आन्दोलनों में जुट जाने वाली फ़्लैश
मोब नहीं बल्कि पढ़े-लिखे वैचारिक जनों का वर्ग है | अन्ना आंदोलन
(अपनी तमाम न्यूनताओं के बावजूद ) ऎसे ही कुछ 'बदल देने को बेचैन' तत्वों की देन था| आंदोलन अपने समय
में ही दो अलग-अलग ही नहीं बल्कि विपरीत विचारधारात्मक तत्वों(दक्षिणपंथ और
वामपंथ) को सायास (क्योकि लक्ष्य एक था) साथ लाने में सफल हुआ था |आंदोलन के अस्तांचल से "आप" का
जन्म हुआ |राजनीतिक सहभागिता के बगैर राजनीतिक बदलाव का आकांक्षी वर्ग आप की स्थापना से ही "आप" से
अलग हो गया | इसी वक्त
योगेन्द्र यादव ,आनंद कुमार जैसे विचारकों
का समूह इस दल से जुड़ा | पार्टी का चेहरा
भले ही अरविन्द केजरीवाल हो लेकिन पार्टी के संविधान से लेकर सामान्य मसौदों पर
विश्लेषण और फिर निर्माण योगेन्द्र यादव जैसे लोगों ने ही किया |आप का उदय एक ऎसे ख़ास वक्त में हुआ जब देश में
चुनावों की पूरी की पूरी श्रंखला घटित होनी थी |दिल्ली में आप ने
उत्साही वालंटियर्स के चलते(चूंकि दिल्ली में ही अन्ना आंदोलन हुआ था )
अपने पहले ही चुनाव में लगभग चौंकाते हुए सरकार बनाई | सरकार को बमुशिक 49 दिन चलकर लोकपाल के मुद्दे पर केजरीवाल ने स्तीफा दे दिया| इसके ठीक बाद लोकसभा चुनाव थे | पार्टी के पास अब तक अपना कोई मजबूत सांगठनिक
ढांचा नही था |इसी बीच पार्टी
के भीतर एक बहस चली | पार्टी के भीतर
का एक वर्ग चुनाव से पहले मजबूत सांगठनिक ढाँचे का निर्माण करना चाहता था तो दूसरा पक्ष लोकसभा चुनाव एक आंदोलन की
तरह लड़ने का हिमायती था |अंततः लोकसभा
चुनाव इन दोनों विचारों में 'बगैर किसी एक को
चुने' लड़ा गया |लोकसभा चुनाव में
आप ने 400 से ज्यादा उम्मेदवार खड़े
किये जिनमें से ज्यादातर की जमानत जब्त हो गयी |करारी हार के बाद पार्टी के भीतर सिद्धांत बनाम व्यवहार की
एक अदृश्य बहस प्रारम्भ हो गयी |अरविन्द केजरीवाल पर हाल के स्टिंग
आपरेशन(कांग्रेस को तोड़ सरकार बनाने की
कोशिश ) को देख कर लगता है कि केजरीवाल ने इन्ही क्षणों में ठेठ सिद्धांतों को परे
रख व्यवहारिक राजनीति करने का मन बनाया होगा |इसीलिये दिल्ली का हाल का चुनाव 'मूल्यों' के लिए नहीं
बल्कि 'जीतने' के लिए लड़ा गया | उम्मीदवारों के चयन में सैद्धांतिक नैतिकताओं को छोड़ जीतने
की प्रायिकता को आधार बना प्राथमिकता दिए गयी |चुनावों से ठीक पहले चंदे की पारदर्शिता संदिग्ध हुई(इस पर
वादे के मुताबिक़ स्पष्ट जवाब केजरीवाल ने
आज तक नही दिया है) | इसी बीच
सिद्धांतों पर जोर देने वाला पार्टी का एक अल्पसंख्यक धड़ा अनवरत इन सब का विरोध कर
रहा था |अंततः चुनाव लगभग
ऐतिहासिक तरीके से जीता गया |इसी जीत के साथ
शायद अरविन्द का व्यवहारिक राजनीति पर भरोषा और भी पुख्ता हुआ होगा | इस डरने वाले जीत(अरविन्द केजरीवाल के शब्दों
में) के साथ साथ आप में एक नया दौर शुरू
हुआ |आप शायद अपने तरह की ऐसी
पहली पार्टी थी जो स्वतंत्र विमर्श तथा भिन्न -भिन्न विचारधारात्मक पक्षों को
तरजीह तथा उनके मध्य संवाद पर बल देती थी |किन्तु हाल ही में जिस तरह से योगेन्द्र यादव व प्रशन भूषण को निष्काषित करने
का षड़यंत्र हुआ ,यह पार्टी के
सैद्धांतिक पतन का प्रारम्भ तो है ही साथ
में चालु राजनीतिक संस्कृति के रास्ते पर एक बड़ा कदम |अरविंद केजरीवाल ने प्रशांत भूषण तथा योगेन्द्र यादव जैसे
वरिष्ठ सम्मानीय जनों के लिए अशिष्ट और घटिया लब्जों का प्रयोग किया है उससे जनता
के मन की उस मूर्ती का भंजन हुआ है जो केजरीवाल को नजदीकी से जाने बगैर जल्दबाजी
में बनाई गयी थी |
क्या यह संघर्ष
आप के अंदर का विचारधारत्मक संघर्ष है ? यदि बात
विचारधारात्मक मतभेदों की थी(जैसा की प्रवक्ता आशुतोष ने योगेन्द्र यादव खेमे को
अल्ट्रा लेफ्ट बताते हुए एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा ) तो उस पर बहस होनी चाहिए
थी | बहस की बजाय मतभेदों को
बगावत बताया गया |तथाकथित बागियों
की बात सुने बगैर आनन- फानन में बैठकें बुलाकर असहमत तत्वों को चुन चुन कर पार्टी
की महत्वपूर्ण समितियों से बहार
निकाला गया |लोकपाल के नाम पर आई" आप" ने अपने ही असहमत लोकपाल को किनारे कर अपने मन पसंद पैनल गढ़ा|आज हाल ये है की मतभेदों पर बहस तो दूर सामान्य
असहमति पर निष्काशन का नियम जैसा कुछ बन गया है | ऎसे में बिना विचारधारा के व्यवहारिक "आप" कितनी
दूर जा पायेगी?
आप की इस उठापटक
से बदलाव का आकांक्षी बौद्धिक खेमा आहत है | उनकी निराशा पर वह दल
जरूर खुश हो रहे हैं जिनकी पार्टी कार्यालय के दरवाजे पर ही पारदर्शिता तथा
आतंरिक लोकतंत्र की बातें समाप्त हो गया हैं |बौद्धिक खेमे आप के मूल्यों पारदर्शिता .आतंरिक लोकतंत्र,
योग्य उम्मीदवारों का चयन इत्यादि मूल्यों से
प्रेम करता था |यह मूल्य जिस किसी दल में होंगे व्यवस्था परिवर्तन का
आकांक्षी हर वर्ग उस दल के साथ खड़ा होगा|आप को समकालीन उथलपुथल पर विचार करना चाहिए |
वह ठीक से बनने से पहले टूट रही है|हो सकता है की आम आदमी पार्टी चुनावी राजनीति में सफल हो
जाये पर क्या वह आज आम मतदाता की आँखों में आँखे डाल कर 'नया राजनीतिक विकल्प' होने का दवा कर सकती है|
आशुतोष तिवारी
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