यह खौफ की एकता है |

"डर से जन्मी एकता "
गतिशीलता जीवन है स्थिरता मृत्यु | राजनीति में प्रयोगधर्मिता न हो तो राजनीति 'स्थिर' हो जाती है |आजकल देश में एक महप्रयोग होने जा रहा है जिसे राष्ट्रीय दैनिक  'महाविलय' की संज्ञा दे रहे हैं |दरअसर यह कोई नया प्रयोग नही है बल्कि एक ऐसा जाना-माना प्रयोग है जो अपनी 'गलतियों से सीख लेने का दावा  कर' के  फिर से एक  होने जा रहा है|समाजवादी शाखा की सभी शक्तियोँ जल्द ही एक होने जा रही है| बात जनता परिवार की हो रही है|समाजवादी पार्टी, जनतादल (यू ),राजद .जनतादल(सेक्युलर),इंडियन नेशनल  लोकदल तथा समाजवादी जनता पार्टी का विलय 'एक दल ' के रूप में होने जा रहा है |यह  सभी दल कांग्रेस या बीजेपी को रोकने के नाम पर पहले भी एक मोर्चे के रूप में एक  होते रहे है पर इस बार नया यह है कि इस बार मोर्चे कि बजाय 'एक ही नाम और बैनर तले' एक राजनीतिक दल बनने जा रहा है |बौद्धिक जमातें इस महाविलय के निहितार्थों पर विमर्श में जुटी हुई हैं |
समाजवादी दलों कि पहली गोलबंदी १९८८ में हुई थी |१९९६ में भाजपा को रोकने नाम पर एक मोर्चा बना तो पर जल्द ही निजी महत्वाकांक्षाओं कि भेंट चढ़ गया |२७ साल बाद यह मोर्चा एक बार फिर 'पार्टी फॉर्म' में तब्दील होने जा रहा है | अंतर इतना है कि १९८८ में यह दल कांग्रेस के खिलाफ एक हुए थे अब भाजपा के खिलाफ एक होने जा रहे हैं|इसी घटनाक्रम के बीच सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस 'महाप्रयोग ' कि सत्तागत संभावनाएं क्या है ??
इस विलय  के सफल या असफल होने कि प्रायिकता पर विचार करने से पहले  समाजवादी धारा के इन दलों के आपसी संबंधों के इतिहास कि पड़ताल करनी चाहिए |इस एका के सभी घटक दलों के सुप्रीमों व्य्कतिगत महत्वकांछी तो हैं ही साथ ही  एक दूसरे के खिलाफ विषवमन भी  करते रहे हैं |१९९६ में मुलायम सिंह यादव लालू यादव कि असहमति\अड़ंगे  के चलते प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए थे |नितीश  कुमार की राजनीतिक सफलता 'लालू की  प्रशाशनिक मुखालफत' की कोख से निकली है|ऎसे में क्या इस नए प्रयोग को संदिग्ध तरीके से नही देखना चाहिए|अच्छी बात यह है लालू यादव के समक्ष क़ानूनी समस्या के चलते 'लालू- नितीश सम्बन्ध' निजी महत्वकांछा की भेंट नही चढ़ेगा |लालू यादव मुलायम सिंह से भी पारिवारिक रिश्ता बनाकर और नए दल का मुखिया स्वीकार कर के 'पुरानी बातों को भूल कर कुछ नया' करने जैसा सन्देश दे रहे हैं |अगर यह विलय सच में कारगर होता है तो आगामी चुनावों के बाद राजयसभा में विपक्ष को भी नयी ताकत जरूर मिलेगी |
क्या समाजवादी दल सचमुच राष्ट्रहित में एक होने जा रहे हैं या यह एकता अपने वजूद खोने की संभावनाओं के चलते जन्मी है |यदि यह सचमुच राष्ट्र हित देश को कोई नया विकल्प देने वाले हैं तो बताना होगा की जनता परिवार के पास कांग्रेस-भाजपा से इतर कौन सा नवीन  'आर्थिक मॉडल है |क्या यह तथ्य नही हैं की जनता दल या उनके सहयोग से बनी सरकारों ने 'मन से' या बेमन वही WTO , IMF  की नीतियों वाला नव उदारवादी आर्थिक मॉडल अपनाया है जिसको कांग्रेस -बीजेपी की सरकारें १९९१ से आजतक अपनाती आई हैं ?| यदि सच में इस बार समाजवादी दल कोई नया 'सामजिक-आर्थिक विकल्प' लेकर आ रहे हैं तो उन्हें जरूर अपने मसविदे में इसे स्पष्ट  करना चाहिए | 'विकल्प की बातें' प्रचार का आधार बनकर सफल होने की संभावनाएं जरूर बढ़ा सकती हैं |
राष्ट्रीय स्टार पर इस एका के प्रभावों पर विचार करने से पूर्व जनता परिवार में  राष्ट्रीय रसूख रखने वाले सर्वमान्य नेता की तलाश करनी  चाहिए| जनता परिवार के सभी घटक दलों को भौगोलिक विस्तार एक या दो राज्यों तक सीमित है| मुलायम सिंह यादव को भले ही जनता परिवार ने नए दल का राष्ट्रीय नेता स्वीकार कर लिया होपर क्या देश की जनता भी उन्हें राष्ट्रीय नेता के तौर पर स्वीकार करेगी |लालू और नितीश का गठजोड़ बिहार में हुए बीते उपचुनावों में बेशक  सफल रहा हो पर जब तक उत्तरप्रदेश व बिहार में होने वाले विधानसभा उपचुनावों के परिणाम नही आ जाते , तब तक कुछ भी स्पष्ट रूप से नही खा जा सकता है |अगर यह परिणाम जनता परिवार के अनुकूल होंगे तो जरूर 'गैर कोंग्रेसी गैर भाजपाई  दल'(पश्चिम बंगाल में TMC  तथा उड़ीसा में बीजू जनता दल ,झारखंड में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा )मिल कर एक मजबूत राष्ट्रीय मोर्चा खड़ा कर सकते हैं|
बिहार के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने  भी जनतापरिवार के समर्थन के संकेत दिए हैं| चुनाव दर चुनाव संसद में विपक्ष लगभग सिमटता जा रहा है|इधर सत्त्ताधारी दल भाजपा भी बिहार में पूरी तरह जुट चुकी है |किसी भी आदर्श लोकतंत्र के लिए विपक्ष की शून्यता आदर्श स्थिति नही हो सकती |इस महा एका का भविष्य जो भी हो   पर फौरी उपलब्धता यह है   कि  बिखरा विपक्ष एकत्रित होकर एक मजबूत आवाज  बनकर संसद पटल पर  सामने आ रहा है |
आशुतोष तिवारी


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