'मर कर न्यूक्लियर बम जैसी सामजिक ऊर्जा पैदा करना ' एक राजनीतिक दर्शन है |

समय /बेसमय उठाये गए तमाम वजह /बेवजह सवालो के बीच यह "वाकई एक" आशंका की शक्ल लिए दिलचस्प  सवाल है कि यदि वेदना में 'शक्ति' होती है तो मौत में तो न्यूक्लियर बम जैसी क्षमता होनी चाहिए ??  | इतिहास बोध के कारण हमे यह मानना   होगा  कि कोई इकलौती मौत (चाहे वह कसी भी फॉर्मेट में हो ) परमाणु   बम जैसा विस्फोट कर सकती है पर इस पर यकीन कुछ शर्तो की मांग करता है |जैसे मौत किसकी ,क्यों और किस उद्देश्य से |उदाहरदन खुद एक बेहतरीन  समझाव  है |देखिए | सामन्यतः यह कल्पना नही की जा सकती है कि एक नगरपालिका सिपाही द्वारा एक बेरोजगार युवक का अपमान टयूनीशिया के जीने अल- अबिदीन- बेन -अली के शासन को उखाड़ फेंकने तक जा पहुंचेगा लेकिन मोहम्मद बौआजीजी कि २०११ में किया गया आत्मदाह ऐतिहासिक क्रांति का पहला छड़ साबित हुआ | यह यही तक नही रुका बल्कि  मिश्र , बहरीन, यमन, सऊदी अरब ,सीरिया , लीबिया , मोरक्को ,अल्जीरिया आदि में ही यह आग जल्द ही फ़ैल गयी जिससे क्रांति जैसा कुछ हुआ तो पर अपनी ऐतिहासिक धार्मिक घेरे में जीने कि त्रासदी झेल रहा अरब सम्पूर्ण क्रांति जैसा न कर पाया | यही नही  सोशल मीडिया की जनतांत्रिकरण जैसी पहचानो   से पेंटेट मिश्र की क्रांति के पहले  खालिद सईद की हत्या व्यापक जन उभार लाने में सफल रही | आप हिंदुस्तान से ही उदाहरण  लीजिए  | हिंदुस्तान में गांधी की हत्या ने न सिर्फ तात्कालिक  राजनीतिक  चुनौतियों के प्रति सचेत किया बल्कि नेहरू और पटेल के बीच कुछ उपजे /उपजाए गए  मतभेदों को दूर कर दिया | दोनों ने आपसी पत्राचार में गांधी की हत्या से सबक लेते हुए मिलकर काम करने की कसम खायी | भगत सिंह की फांसी ने आज तक नोजवानो की प्रेरणा का काम किया | दरअसर  'मर कर न्यूक्लियर बम  जैसी सामजिक ऊर्जा पैदा करना ' एक राजनीतिक दर्शन है | इस दर्शन को बकुनिन की अराजकतावादी जमीन हासिल है जिसमे प्रोपेगंडा इन डीड थ्योरी काम करती है |यह मानता है कि किसी भी विचार का फैलाव जनमाध्यमों और साहित्य से करना उबाऊ ,प्राचीन और कम प्रभावी तरीका है जबकि कोई घटना खुद में काफी प्रचारात्मक और प्रभावी होती है | भगत सिंह स्वयं अपने नौजवान भारत सभा के संदेशो में इस थ्योरी का जिक्र करते है | मुझे नही पता कि रोहित वेमुला कि मौत से दलित आंदोलन कितनी मजबूती  बटोरते हैं पर उसकी मौत और उसके बाद होने वाले आंदोलन की भित्तिया इसी दर्शन पर टिकी है  |आये दिन किसी न किसी का वाजिब /गैर वाजिब  वजहों से संस्थानों को आत्महत्या  की धमकी देना भी इसी सोच पर यकीनियत का हिस्सा है | आतंकवादी आंदोलन  शरुआती दौर में  ..(जब वो जायज जन आंदोलन के रूप में था) ...इसी दर्शन को अपनाते हुए भी एक नैतिक भित्ति पर खड़े दिखाई देते हैं |यह दर्शन कितना सही है या कितना गलत , यह बहस बहुत ही व्यक्तिपरक है क्योकि यह इतिहास में भी अनिर्णीत पडी  है | लेकिन अगर सफलता और प्रभाव को मानक बनाया जाये तो इसने इतिहास में न सिर्फ कई क्रांतियों को जन्म दिया है बल्कि उसके आदर्शो को जारी भी रखा है |

आशुतोष तिवारी

टिप्पणियाँ

  1. आशुतोष जी अच्छा विषय चुना है। उसे बस विचार सीमित रखा। यह अच्छा रहा, फैसले सुनाने का प्रयास नहीं है।

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