'गरीबी' और 'गैर -बराबरी' तो स्वस्थ पूंजीवादी व्यवस्था के लक्षण है |

एक ऐसे वक्त में जब सारी दुनिया इस सवाल को लेकर उत्सुक है कि मंगल ग्रह पर जीवन की कितनी संभावनाएं शेष हैं , क्या हमे यह नही सोचना चाहिए की इसी दुनिया में आखिरी आदमी के लिए कितनी संभावनाएं शेष हैं |दरअसर यह सवाल पिछले दो दशकों से जोर शोर से उठाये जाने के बावजूद असामयिक और गैर जरूरी नही हुआ है तो उसके कई वाजिब कारण हैं |वैश्विक आर्थिक तंत्र द्वारा आर्थिक असमांत उन्मूलन के दावों/वादों को मुहं चिढ़ाती गैर सरकारी संस्था ऑक्सफेम की रिपोर्ट कई गंभीर सवाल खड़े करती है |एक ऐसी दुनिया में जहां हर नौ में से एक शख्स हर रात भूखे पेट सोता हो ,क्या इस तथ्य को सामन्यतः पचाया जा सकता है कि दुनिया के मात्र ६२ लोगो के पास आधी आबादी के बराबर सम्पत्ति है |
गरीबी उन्मूलन के लिए काम करने वाली गैर सरकारी संस्था ऑक्सफेम ने वैश्विक वित्तीय संस्थान क्रेडिट स्विस के आंकड़ों के आधार पर कुछ चौंकाने वाले दावे किया है |सर्वेक्षण के अनुसार 2010 में दुनिया कि सबसे गरीब आबादी के 50 फीसद के पास जितनी धन सम्पदा थी ,उतनी ही सम्पत्ति दुनिया  के 377 आमिर लोगो के पास थी |उसके बाद यह आंकड़ा लगातार घट रहा है |2011 में यह आंकड़ा घटकर 177 पर आ गया और फिर 2012-13-14 में क्रमशः 159, 92  और घटते हुए 80 पर आ गया |यह आंकड़े बताते हैं कि दुनिया कि आर्थिक  प्रणालियां  समावेशी नही हैं |लगता है जैसे चंद हांथों में पूँजी संचयन ही इन प्रणालियों का इरादा है | जिस जिस अनुपात में अमीरो कि दौलत में इजाफा हो रहा है लगभग उसी दर से गरीब कंगाली की और बढ़ रहे हैं |रिपोर्ट बताती है पिछले ५ सालों में गरीबो की सम्पत्ति में 41 फीसद कि गिरावट आई है |यह सच है कि पूर्ण आर्थिक  समानता एक यूटोपियन विचार है लेकिन स्थिति की भयावहता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता  है कि दुनिया की एक फीसदी अमीर आबादी के पास ९९ फीसद के बराबर संपत्ति है |यह रिपोर्ट अपने समय को लेकर भी महत्वपूर्ण है क्योकि यह स्विट्जरलैंड में शुरू हो रही विश्व आर्थिक  मंच की बैठक के एक दिन पहले जारी हुई है |इसमें सम्भवतः अमीर और गरीब के बीच कि असमानता दूर करने , कर चोरी से धन चुराने वालों पर  कार्रवाई  आदि मुद्दों पर चर्चा होनी है |
आखिर इस व्यापक असमानता का दोषी कौन है| ?क्या गरीब ही हाँथ  पर हाँथ रखे निकम्मों कि तरह नियति के हवाले जी रहे हैं या फिर जिस आर्थिक तंत्र को सारी दुनिया ने मान्यता दे रखी है ,उसमे ही कोई आधारीय दोष है |यहाँ पर दो अर्थशास्त्रियों का उल्लेेख प्रासांगिक है | एक है मशहूर अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी और दूसरे ग्रेनेडा के अर्थशास्त्री डेविसन बुधु | थॉमस पिकेटी ने असमानता का अर्थशास्त्र नाम से अंग्रेजी में एक किताब लिखी है |इस किताब में पिकेटी ने अपने गहन शोध का निचोड़ दिया है कि 'आर्थिक गैर बराबरी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था कि कोख में है |'पूंजीवाद के जनक एडम स्मिथ का यह मानना था कि 'अत्यधिक उत्पादन और उत्पादों की बहुलता' अंततः समाज के लिए लाभदायक सिद्ध होगी और पूंजी अंततः रिस -रिस  कर निचले पायदान तक आएगी |पिकेटी के अनुसार यह आशंका गलत साबित हुई है | क्योकि इस पूंजीवाद की प्रयोगिकी  में पूंजी का प्रवाह ऊपर से नीचे (टॉप -टु-डाउन ) नही हो सका बल्कि इसके विपरीत  पूंजी संकेन्द्रण तेजी से हुआ है | दूसरा उदाहरण कनाडा के अर्थशास्त्री डेविसन बुधु का है जिन्होंने  लम्बे समय तक वर्ड बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी वैश्विक  वित्तीय संस्थाओ में काम करने के बाद इस्तीफ़ा दे दिया |इस स्तीफे को एक किताब के रूप में प्रकाशित  किया गया था जिसका नाम था 'इनफ इज़ इनफ' |इज़ किताब में डेविसन बुधु ने तमामों तथ्यों , सांखियकीय  तथा पिछले वर्षों  के आंकड़ों के हवाले के साथ निष्कर्ष निकला  कि "अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और वर्ड बैंक जैसे संस्थाए अपने भ्रामक, सशर्त आर्थिक अभियानों द्वारा तीसरी दुनिया के देशो में एक चौथी दुनिया  पैदा करना चाहती है |एक ऐसी दुनिया जिसके पास  भूख मिटाने भर की क्रय शक्ति भी न होगी जबकि दूसरी ओर एक समर्थ ओर गैर जरूरी महंगे  उत्पादों को उपभोग कर सकने वाला  तबका होगा जो बहुराष्ट्रीय निगमों के लिए नया बाजार बनकर उभरेगा ओर उसे खरीद की मंदी से मुक्ति दिलाएगा | क्या पिकेटी की आशंका ओर बुधु का दावा ऑक्सफेम की इस रिपोर्ट की ही व्याख्या  नही है |
भारत ही नही वरन पूरी दुनिया में अमीर और गरीब के बीच की खाई तेजी से बढ़ती जा रही है | गरीबी किसी भी देश में एक विशाल  बेरोजगार और अशिक्षित तबके को जन्म देती है |यह तबका जरायम की दुनिया के लिए कच्चे माल का काम करता है |इससे आपराधिक घटनाये बढ़ती है और राज्य का प्रशाशनिक खाका प्रभावित होता है | इसीलिए यह रिपोर्ट भारत के साथ- साथ पूरी दुनिया के लिए चिंताजनक है क्योकि यह परिदृश्य भविष्य की कई चुनोतियो की और इशारा कर रहा है |
यदि 21वी सदी में हम तमाम आर्थीक  तरक्की और वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद अंतिम जनो  के हांथो में रोटी का निवाला नही पहुंचा पाये तो ऐसी प्रगति का कोई मतलब नही है |उत्पादन के स्तर पर लगभग सफल रही पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में 'वितरण' के दोषों की बारीकी से खोज करनी होगी वरना जल्द ही हम आने वाले समय में हिंसात्मक जन आंदोलनों के वीभत्स दौर से रूबरू हो सकते हैं|
 आशुतोष तिवारी
आई.आई.एम सी  दिल्ली
( यह ब्लॉग दैनिक जागरण के सम्पादकीय पेज पर प्रकाशित हो चूका है |लिंक - ....http://epaper.jagran.com/homepage.aspx )

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