इस बजट के लिए राहुल गांधी को शुक्रिया नही बोलियेगा ???


वित्त मंत्रालय ने साल का सबसे भारी काम निपटा दिया है | आम बजट आ चुका है जिसे 'संकटों से घिरी सरकार' ने 'सम्भावनाओ भरा'  बताया है |विमर्श की मंडी में बजट को लेकर तमाम  तरह के विश्लेषण मौजूद है |जिन लोगों ने नरेंद्र मोदी में मार्गेट थैचर से लेकर रोनाल्ड रोगन तक की आत्मा ढूंढने  की कोशिश की थी , ये बजट पड़कर उनका चेहरा 'मुह छिपाने वाली इमोजी' जैसा हो गया है |सोशल मीडिया पर भाजपाई  प्रतीकों के जरिये अपनी पहचान बनाने वाला एक तबका असली भारत यानी ग्रामीण भारत का बजट बताकर दीन दयाल टाइप फील करने लगा है | आज के अखबार उन बिन्दुओं से भरे ही थे कि 'बजट में क्या क्या है' इसलिए मैं उन तकनीकी बातों से बच रहा हूँ |
समय अपनी चाल से विचित्र किस्से बुनता है |16 मई को भारी जनादेश पर चढ़ आई इस सरकार के बारे में अंग्रेजी अखबार 'मिंट' ने 17 मई को टिप्पड़ी की थी.. " द विक्ट्री ऑफ़ द बीजेपी इज द फर्स्ट विक्ट्री ऑफ़ इंडियन कैपिटलिज्म" | आज के हिन्दुस्तान टाइम्स की हैडलाइन है .."मिस्टर राइट टर्न टु लेफ्ट " | इन दोनों टिप्पड़ियों की तुलना कीजिए | क्या आप भी वही सोच रहे हैं जो मैं सोच रहा हूँ | क्या ये बहुत ही सतहीकरण है या सचमुच भाजपा का वैचारिक पुनर्वास हो गया है | इसका जवाब आज के अमर उजाला में 'नीलांजन मुखोपाध्याय' के लेख में मिलता है |नीलांजन लिखते है कि 'यह  वित्त मंत्री का नही प्रधानमंत्री  का बजट है |भाजपा पिछले दो विधानसभा चुनाव बुरी तरह हारी है |हार के इन कारणों में सरकार की कॉर्पोरेट परस्त मानी जा सकती है |इन दो सालों में 9 राज्यों में चुनाव है जहां जीतना दिन पर दिन (अगर सरकार मनचाहे बिल पास कराना चाहती है ) सरकार की राजन्ररतिक मजबूरी होती जा रही है |'मूलतः मेरी भाषा में कहूँ  तो यह अर्थ मंत्रालय का राजनीतिक बजट है |
आज के 'नेशनल ट्रिब्यून' और 'राजस्थान पत्रिका' ने जो पहले पृष्ठ पर बजट रिपोर्टिंग की है उसका सार यही है की यह बजट सूट- बूट  के जोखिम से मुक्ति का प्रयास है |अगर सूट बूट वाली बात बीजेपी को इतनी ज्यादा लगी है की वह अपनी धुर पूंजीवादी शैली को छोड़कर किसान परस्त हो गयी है तो इस जुमले के जन्मदाता राहुल गांधी को शुक्रिया तो कहा ही जा सकता है |वैसे भी पिछले एक  साल से राहुल  गांधी सैफ्रन किस्म की इस सरकार को सूट- बूट  की सरकार साबित करने के लिए दिन रात एक किये हुए हैं |
हालांकि बजट की तमाम व्याख्याओं में सरलीकरण हुआ है | आम मत से मान लिया गया लगता है की यह बजट किसानों की ज़िंदगी बदल देगा | हिंदी के किसी अखबार ने इस बजट को 'मोदी का कृषि -दर्शन' नाम दिया है | क्या सचमुच ऐसा है या हम कोई जल्दबाजी कर रहे हैं |अगर सरकार सचमुच किसानों की हितैषी है तो लागत मूल्य से 50 फीसदी अधिक सरचार्ज देने के उस वादे  का क्या जो किसानों से लोकसभा चुनावों से पहले किया गया था |
बेशक इस बजट में कृषि क्षेत्र पर ध्यान देने की फुटकर पेशकशें हैं पर कोई सुनुयोजित रोडमैप नही दीखता है |सरकार को किसानो का हितैषी बताकर हम कही कोई जल्दबाजी तो नही कर रहे | वैचारिक प्रतिबद्धताएं रातो रात परिवर्तित नही होया करती | दुनिया भर की दक्षिणपंथी सरकारें संकट व ख़ास किस्म के राजनीतिक हालातों में जनता के बड़े भाग पर अपनी लेजिटिमेसी जारी रखने के लिए ऐसे लोकलुभावन फैसले लेती रही है |

आशुतोष तिवारी
भारतीय जन संचार संस्थान 

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