यह हमारे 'देखने' की दरिद्रता है |


वाम और दक्षिण के बीच की जिरह दुनिया भर की राजनितिक जीवंतता का जरूरी हिस्सा रहा है | समय -समय पर इन धाराओं से उपजी संगठित राजनीतिक शक्तिओं की कार्यवाहियों/कार्रवाहिेयों के चलते  बहस उभकर सतह पर आती रही है | इस ब्लॉग का लिखाव भी उसी बहस और असहमति  की राजनीति से गुजरना है साथ ही साथ अपने पिछले फेसबुक पोस्ट पर आई 'लगभग सभी असहमत टिप्पड़ियों' का जवाब देने की  कोशिश भी है |
अकादमिक विमर्श का सबसे बड़ा दोष यह है कि इसका दायरा हर बार अकादमिकता की सीमा के बाहर चला जाता  है |राजनीतिक दर्शन से जुडी सारी बहस अंततः कांग्रेस बनाम बीजेपी की 'हम -तुम जैसे सनम' गाती हुई खत्म हो जाती है  क्योकि हम राजनीति विज्ञानं  की बुनियादी सच्चाईयां नजरंदाज करते हैं | विमर्श का कोई ऑउटकम् हो इसके लिए यह जरूरी है की राजनीति , राजनीति शास्त्र और राजनीतिक दर्शनों के बीच का बारीक फर्क समझा जाए | राजनीतिक दर्शन दुनिया भर की राजनीतिक प्रक्रियाओं को देखने की एक स्पेसिफिक समझ देता है वही राजनीति तो एक असीम  छतरी के नीचे होने वाली उन सभी  गतिविधयों का समुच्चय है जिनसे समस्या /संघर्ष /सजगता /संगठन  का विकास हो रहा है |एक और जहां राजनीति राज्य और राज्येतर दुनिया की रोजमर्रा के जीवन की व्यवहारिक सच्चाई है वही राजनीतिक दर्शन एक जैसी तमाम राजनीतिक व्यवहारिकताओं की 'अकादमिक समझ'| यह सच है कि राजनीतिक दलों का पैदाइश एक विशेष अकादमिक समझ कि चौहद्दी में ही हुई है पर यह सोचना कि राजनतिक दलों कि तमाम जायज /नाजायज  गतिविधियों का दर्शन ही जिम्मेदार है तो यह  'देखने वाले' के देखने कि दरिद्रता है | यह अंतर है शायद इसीलिए राजनीतिक बहस इस बात पर तो हो सकती है कि बीजेपी का फलां काम किया  और कांग्रेस ने फला , लेकिन दर्शन कि बहस अंततः विचारधारा कि बहस होगी जिसके केंद्र में यही होगा कि कोई दर्शन कैसी दुनिया बनाना चाहता  है | यही अंतर है इसीलिए कोई कम्युनिस्ट पार्टी का कार्ड होल्डर न होते हुए भी वामपंथी हो सकता है और कोई संघी विचारधारा का आदमी भी लेफ्ट कि राजनीतिक गतिविधियों में खुले /छुपे सक्रिय हो सकता है |
ये भी नही समझा जाना चाहिए कि व्यवहारिकता और अकादमिकता का यह फर्क राजनीतिक दर्शनों को पाक -साफ़ बताने जैसा है क्योकि अगर ऐसा होता तो दुनिया कब कि एक दर्शन पर ही टिक गई होती  और प्लेटो का शिष्य अरस्तु ही  उसका सबसे बड़ा आलोचक नही होता | दरअसर दर्शन आपको दुनिया को देखने का एक नजरिया देता है | नजरियोंं के अलगाव में मतभेद होते हैं पर कई बार कोई दर्शन या विचारधारा स्वयं में एक समस्या होती है |(उदाहरणत: साम्प्रदायिकता बहस के हर छोर पर हारी हुई विचारधारा है लेकिन इसकी व्यवहारिक पकड़ पूरी दुनिया में दिन पर दिन मजबूत होती जा रही है ) | बौद्धिक जमातों में सर्वमान्य  है कि वाम दर्शन की धुरी उनके राजनीति इलाके में बसा  अंतिम आदमी है  शायद इसीलिए यह दुिनिया की तमाम लचीली विचारधाराओं के साथ दोस्तबाज की भूमिका में दिख जाता है | (वाम जनपरस्त है ऐसा मैं नही कह रहा बल्कि जब सरकार ने इस बार गरीब और किसान समर्थक  दिखने  वाल बजट बनाया तो मुक्तबाजार के हिमायती हिन्दुस्तान टाइम्स ने हेड लाइन दी ..'मिस्टर राइट टर्न टु लेफ्ट ') | इसीलिए अक्सर  समाजवादी और मध्यं मार्गी धाराएं वाम की व्यापक जमीन में दाखिल हो गयी दीखती हैं | यहां राजनीतिक अंतर नही है इसीलिए जब दर्शनों के बीच बहस होती है तो इस बात की  कि हिंदुत्व इस दुनिया को कैसे देखता है और वाम कैसी दुनिया सृजित करना चाहता है |
अब बात उस राजनीतिक हिंसा की भी होनी चाहिए जिसका जिक्र माओ , स्टालिन और नक्सलवाद कि निशानदेही करते हुए हर बार किया जाता  है | दरअसर यह इतिहास है कि कोई भी लम्बी अवधि तक जारी रहने वाला आंदोलन बुराइओं से परे नही रह पाया है |हालंकि मात्र इन  नाजायज बुराइओं को आधार बनाकर दर्शन को खारिज करना नाकाफी जान पड़ता है | न ही इस सेलेक्टिव निशानदेही से आदिवासियों कि जमीन हड़प कर उन्हें बेघर कर देना  जायज हो जाता है और न ही राष्ट्र के संसाधनो को कुछ हांथो में दे दिए जाने के खिलाफ लड़ाई कमजोर हो जाती है |हाँ ,पर इससे आंदोलन को धक्का जरूर लगता है और पब्लिक डोमेन में उसकी छवि खराब होती है जिसकी चिंता अब आज के आतंकवादी आंदोलनकारियों ने करना बंद कर दी है | कही कहीं पर बकुनिन कि 'प्रोपेगेंडा इन डीड थ्योरी' का प्रभाव भी क्रांतिकारियों के बीच कार्य कर रहा  है | लक्ष्य एक है पर उसके पाने के तरीको में इतने मतभेद है कि किसी ख़ास के नाम पर सम्पूर्ण आंदोलन कि आत्मा की पहचान नही  की जा सकती |आंदोलन और क्रान्ति के नाम पर होने वाली हिंसा से कई बार उसके अपने लोगों का मोहभंग हो जाता है |हालांकि  दावा  किया जाता है यह हिंसा, हिंसा पर  एकाधिकारी अमीरपरस्त स्टेट के खिलाफ की   जाती है | इस दलील के बावजूद मेरी नजर में टैगोर बेहतर बात कहते है कि हिंसा के किसी बड़े दानव से लड़ते- लड़ते आपके भीतर प्रति हिंसा पैदा हो जाती है जो आपको आप 'जिनसे लड़ रहे है' लड़ते -लड़ते उनके जैसा ही बन जाते हैं | हालंकि महत्वपूर्ण बात इरादा है पर फिर भी हिंसा कि संस्कृति से जितना बचा जाये उतना बेहतर है |
आशुतोष तिवारी
भारतीय जनसंचार संस्थान

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