यह चुनाव मुख्य्मंत्री चुनने के लिए नहीं आपके इलाके का विधायक चुनने के लिए हो रहा है |

राजनीति विज्ञान की एक जानीमानी कहावत है कि राजनीति हर उस क्षण की पैदाइश है जिस क्षण वह हो रही होती है |हाशिये पर खड़ी पर जीतने को आतुर चुनावों की रणनीतियां इन कहावतों में अपना जीवन खोज लेती  हैं |कुछ बेहतर दिमागी ताकतें  इतिहास की कोख से खुद  का छोड़  सभी का कचरा बटोर लाती हैं |चुनाव से पहले चुनाव की एक भ्रामक पिच तैयार कर दी  जाती है |हमारा लोकतंत्र उस पर चुनाव -चुनाव खेलता है |लोग एक- दूसरे से चीख -चीख कर एक दूसरे की खामियां गिनाते हुए चाय की दुकानों पर लोकतंत्र को मजबूत करते रहते  हैं |अंततः ऐसे ही खींच- तानों के बीच   एक दिन चुनाव हो जाता है |खामियां बताने वाला खामिया बनाने लगता है |लोकतंत्र पांच साल तक पार्टी ऑफिस का चौकीदार बनकर रह जाता है |
खैर , यूपी के दरवाजे पर चुनाव ने दस्तक दे दी है |राजनीतिक कालक्रम तेजी से बदल रहा हैं |इस ब्लॉग का लिखाव ऊपर लिखी सैद्धांतिकी से परे जमीन पर हो रही व्यवहारिक राजनीति के करीब पहुँचने की कोशिश जैसा है |यहां 'जैसा मैंने देखा'  से कही ज्यादा उन लेखो और चौपालों की बसावट भी  है जो टेलिविजनिया विमर्श  में  आकर्षक एंकरों द्वारा दिन रात ठेली जा रही हैं |
यूपी में राजनीतिक परिस्थितियां  दिलचस्प हो गई है |न सिर्फ ये तेजी से बदल रही हैं बल्कि मतदाताओं को भी बदला  रही है |समाजवादी पार्टी में देखते- देखते दो -चार तबके दिखाई देने लगे हैं |मुलायम सिंह यादव के बाद खुद को स्वाभाविक विरासती समझने वाले शिवपाल यादव मुख्य्मंत्री अखिलेश यादव की बिना जानकारी के मुख्तार अंसारी को समाजवादी छतरी के भीतर ले आते हैं |अखिलेश यादव, शिवपाल से बिना कुछ बताए बलराम यादव को बाहर कर देते हैं |शिवपाल यादव अखिलेश को बिना कुछ कहे अपनी नाराजगी जता देते हैं | फिर अखिलेश यादव पार्टी को फैसले को जायज बताते हुए बलराम यादव को दोबारा मंत्री बना देते हैं |अखिलेश यादव को बेहतर बताते हुए जो बलराम जी बाहर हुए थे वो बेहतर बताते हुए भीतर आ जाते हैं |कुछ दिनों पहले रामगोपाल यादव और आजम खान की नाराजगी को कोने में रखते हुए नेता जी बहुदलीय निष्ठा रखने वाले  अमर सिंह को राज्यसभा भेज देते हैं |और कल ही रामगोपाल  यादव खुद के जन्मदिन का केक काटते हुए कहते हैं की मुलायम सिंह यादव को  अपना सब कुछ बता देते हैं  |यह सब घटनाएं चीख -चीख कर बता रही हैं की सपा के भीतर 'कुछ' नहीं 'बहुत कुछ' सही नहीं चल रहा है |सत्ता के दो केंद्र जैसी हालत तो नहीं है पर इसे 'तबकेबाजी' तो कहा ही जा सकता है |मथुरा के  मसले पर पार्टी अपनी बैकफूटन्स  को फारवर्डनेस में तब्दील करने की कोशिश कर ही रही थी की यह अंतर्विरोध सामने आने लगे हैं |इन हालातों ने सपा को चुनावी जीत से कई  मील दूर कर दिया है |
अब बात उस पार्टी जिसका संगठन मंत्री राष्ट्रीय स्वयं सेवक की कतारों से निकल कर आता है |बेशक एक चेहरे के भरोसे  लोकसभा चुनाव में भाजपा को विशालकाय  बहुमत मिल गया था पर यह विशालकाय बहुमत साथ में  भारी -भरकम  उम्मीदें लेकर आया था  |तमाम जायज /नाजायज कारणों से इन उम्मीदों पर हर रोज पानी फिर रहा है |न भारत को अमरीका बनाने की कुंठा  रखने वाला  मिडिल क्लास  खुश है और न ही भारत के भीतर 'असली वाला भारत' ढूँढ़ने वाला अति राष्ट्रवादी गैंग ,जिन्हे भाजपा विरोधी कुढ़कर 'भक्त' कहते हैं | भाजपा को यह बात अच्छी तरह पता है की उसकी दो साल पहले वाली आंधी हल्की -फुलकी सरसराहट में बदलती जा रही है |इसीलिये वह यूपी में न सिर्फ केशव प्रसाद मौर्या को प्रदेश अध्यक्ष  बनाकर और शिव प्रसाद शुक्ला  को राज्यसभा  पहुंचाकर जातीय गन्तुडे भिड़ा रही है बल्कि कैराना और दादरी के जरिये वह खेल भी खेलना चाह रही है जिसमे वह माहिर रही है |अभी कुछ महीनो पहले ABP न्यूज़ ने अपने सर्वे में बीजेपी को तीसरे नंबर की पार्टी बताया था |वैसे भाजपा की  यूपी फतह न कर पाने की तमाम वजहें हैं |उसकी सांगठनिक  हालत इस सूबे में बहुत कमजोर है |पार्टी के पास कोई मजबूत चेहरा नहीं है |भाजपा का जातिगत गणित औरों के मुकाबले कमजोर है |हालंकि पार्टी अभी खुद की रणनीति को लेकर भी दुविधा में लगती है |
बसपा अब तक यूपी चुनाव  में प्राथमिकता वाली हैसियत में है |स्वामी प्रसाद मौर्या  का छोड़ कर जाना उसके लिए ज्यादा प्रभावकारी नहीं है क्युकी वह लम्बे समय से जनता के बीच अपनी प्रभावकारिता धीमे -धीमे खो रहे थे |मौर्या के जाने से गैर यादव ओबीसी मतों को जो बसपा से छितरा हुआ मान रहे हैं वो जल्दबाजी कर रहे हैं |बसपा सांगठनिक स्तर पर बहुत मजबूत पार्टी है |जो लोग लोकसभा से बसपा की स्थिति का जायजा ले रहे हैं वो लोग अपने विश्लेषणों में जरूर भाजपा को दो तिहाई सीटें दे रहे होंगे |पर यह चुनाव प्रदेश के मुद्दों पर लड़ा जा रहा है और इस लिहाज से मायावती अपने प्रतिद्वन्दियों से कहीं ज्यादा आगे हैं |
कांग्रेस उत्तर प्रदेश में 27  साल से नहीं है |हालंकि यूपी में उसकी हैसियत बची है |पिछले लोकसभा  चुनाव में यूपी में राहुल गांधी ने करिश्मा सा किया था पर पार्टी उसे जारी नहीं रख पायी है |कांग्रेस का यूपी  नेतृत्व आलसी हो गया है |काफी अर्से से वह यह बात मान कर बैठ गया है की यूपी में उसका कुछ नहीं हो सकता |कार्यकर्ताओं का नेताओं से सम्पर्क नहीं है |उसके अभी तक के खुलते घोटालों ने उसके लिए एक बड़ा से निराशाजनक माहौल बनाया है |उससे उबरने के लिए मेहनत चाहिए |ख़ास तरह के राजनीतिक गठजोड़ चाहिए |चुनाव से पहले या बाद किसी गठबंधन के बारे में सोचा जा सकता है |पार्टी ने प्रियंका गांधी की मांग हर बार की तरह हो रही है पर क्या प्रियंका का राजनीति में आना राहुल गांधी के 'असफल नेता' वाले आरोपों पर खुद ही मोहर लगाने जैसा न होगा |?? लिहाजा पार्टी को राजनीतिक जड़ता तोड़नी होगी |जीत के लिए जमीन पर उतरना होगा |
यह तो हुयी व्यवहारिक राजनीति की बात |चुनाव जैसे होता था वैसे हो जायेगा |पर यूपी बेचारा वैसे ही बजबजाएगा |बेरोजगारी चरम पर है |गुंडागर्दी और अपराध के किस्सों से अखबार भरे होते हैं |शायद हमारा लोकतंत्र चुनाव तक सीमित होकर रह गया है |कोई दल यदि लोकतंत्र को मजबूत करने के मकसद से काम करता है तो क्या आप मतदाता उसे मौका देते हैं ?? यह चुनाव मुख्य्मंत्री चुनने के लिए नहीं आपके इलाके का विधायक  चुनने के लिए हो रहा है |अच्छा हो की समा राग दरबारी जैसा ना हो |चुनाव नजदीक हैं |5W,1  H (क्या ,कहाँ ,क्यों ,कैसे ,कब , कौन)  खुले रखिये
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Ashutosh Tiwari
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