1 अगस्त के
इंडियन एक्सप्रेस का पहला पन्ना चौंकाता है | बड़े से एक चित्र में लोगों का हुजूम
किसी जरूरी/जायज उत्तेजना से प्रेरित हो प्रतिकार की मुद्रा में खड़ा दिखाई देता है | आवाहन इस बात का है कि
दलितों को वह सारे काम बंद कर देने चाहिए जिन 'निहायत जरूरी' कामों की वजह से समाज के बड़े
तबके ने उनके साथ ‘गैरजरूरी’ जैसा व्यहार किया है | लोगों के इस सैलाब का कोई नेता नही है | सन्देश एक
रैली का , जो आजादी कि 70 वीं सालगिरह पर भाजपा कि तिरंगा रैली के बरक्स अपने मजबूत सवाल उठाते हुए समाप्त होगी |
दलित राजनीति दिलचस्प हो गयी है |क्या राष्ट्रवाद की तोड़ू राजनीति के समानांतर
दलित राजनीति का ये मोड़ बड़े मुकाम हासिल कर सकता है |?
हम सभी जानते हैं कि
देश में दलित आक्रोश ‘एकाएक’ और ‘बेवजह’ नही है | पिछले
दो सालों से तमाम चौंकाने वाली वारदातों ने हाशिये पर पड़े इस तबके में जान
दाल दी है | क्या ये आसानी से पचाया जा सकता है कि ऊना की न्रशंस घटना के बाद दलित
युवाओ ने प्रतिकार दर्ज कराने के लिए ख़ुदकुशी करने का रास्ता चुन लिया | दलित राजनीति
कि नीली रेखाएं सुर्ख हो रही हैं | कथित गौ - रक्षकों द्वारा गुजरात के ऊना में
दलित युवकों के साथ की गयी न्रशंसता के बाद उस जन - उभार में जान आ गयी है जो एक
होनहार दलित छात्र की संस्थागत हत्या (
तमाम लोगों ने ऐसा कहा ) के बाद धीमे – धीमी खामोश हो रहा था | ऊना में उन गुंडों
ने न सिर्फ मरी हुयी गाय की खाल उतारने वाले दलित युवाओं की पिटाई की बल्कि उनकी
योजना उन्हें ज़िंदा जला देने की भी थी | जिस गाय को मारने का आरोप इन दलित युवाओं
पर था ,एक स्थानीय ग्रामीण के अनुसार उसे एक शेर ने मारा था | (यह दोनों खबरें
इंडियन एक्सप्रेस में पब्लिश हुयी हैं | इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने तो लगभग ऊना कि
घटना का फॉलो अप करना भी छोड़ दिया है | इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कि इस पेशेगत खामी पर
चिंता जताते हुए सुधीश पचोरी जी ने राष्ट्रीय सहारा में एक लेख भी लिखा |) गुजरात
में हुयी यह घटना उस राजनीति पर भी तमाम सवाल खड़े करती है जिसके इर्द- गिर्द हर
गली मोहल्ले में गौ- रक्षा के नाम पर निकम्मे ओर आवारा मिजाज गुंडों का झुण्ड
तैयार हो रहा हैं | यह सवाल इसलिए भी जरूरी है कि ऐसी घटनाओं की खबरे देश के हर इलाकें से आ रही हैं | जो लोग इन
घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं वह अपने आपको
भाजपा या उनके आनुषांगिक संगठनों का पदाधिकारी / सदस्य बताते हुए गर्व
महसूस करते हैं | सन्दर्भ के रूप में
हैदराबाद से भाजपा विधायक ठाकुर राजसिंह का हालिया बयान याद किया जा सकता है जिसमे
उन्होंने ऊना के उन कथित गौ रक्षकों की यह तर्क देकर तारीफ़ की है कि ‘दलितों को सरेआम पीटकर उन्होंने अच्छा सबक सिखाया है |’
प्रधानमंत्री ऊना की घटना पर खामोश हैं जबकि घटना के बाद मन की बात का एक एपिसोड भी बीत चुका है | हालांकि भाजपा के दलित नेताओं ने चुप्पी तोड़ते हुए आक्रामक गुजारिशें की हैं | लेकिन अब तक केन्द्रीय नेत्रत्व कि तरफ से कोई भी कडा सन्देश देने वाला बयान नही आया है | क्या मुखर/बेबाक बताये जाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपनी चुप्पी नही तोड़नी चाहिए ?? क्या यह चुप्पी भाजपा के राजनीतिक लक्ष्य के एक बड़े तबके को तमाम कोशिशों के बावजूद अलग – थलग नही कर रही है | गौरतलब है कि दलितों को जोड़ने की कोशिश के रूप में भाजपा की जोरदारी से प्रचारित धम्म चेतना यात्रा फेल हो गयी है | एक तिहाई से ज्यादा डाली आबादी वाले आगरा शहर में भाजपा इस यात्रा में 500 दलितों को भी जुटाने में फेल रही है | बतौर कार्यक्रम स्थल 50,000 कि गैदरिंग कि क्षमता वाले मैदान को भाजपा की आगरा इकाई के असमर्थता जताने के बाद स्थानीय शिशु मंदिर में मजबूरन शिफ्ट करना पड़ा | क्या इस नाकामी में दयाशंकर प्रकरण ओर ऊना कि घटना का कोई प्रभाव नही है | जाहिर सी बात है दलित राजनीति आक्रामक होकर गोलबंद हो गयी है |
इतिहास है कि दलित
राजनीति रेडिकल मिजाज की रही है | जनता के बीच दलित राजनीति ओचित्यपूर्णता के स्तर में कम्युनिस्ट
राजनीति से भी कही आगे खड़ी दीखती है | इस कि बड़ी वजह दलित राजनीति का स्वयंस्फूर्त होना भी है
| दलित राजनीति को जनाधार खोजने की जरूरत नही है | इसी के चलते अपने तबके के
नेता के अपमान को लेकर बिना तैयारी के एक
ही दिन में लाखों लोग मुखर होकर सडकों पर आ जाते हैं | सैद्धांतिक दलित राजनीति को
अपने 'सवाल' . 'आधार' और 'विरोधी' पता हैं | मायावती भले ही व्यवहारिक राजनीति के तर्क
से भाजपा के साथ मिलकर तीन बार सरकार बना चुकी हैं लेकिन उनके राजनीतिक गुरु
काशीराम रैलिय तक यह बोल कर किया करते थे कि रैली में यदि कोई ऊंची जातियों से हुआ तो वह भाषण नही देंगे |
हालांकि दलित
राजनीति ने काशीराम के बाद तमाम करवटें ली हैं | लेकिन आज इसके एकजुट होने की बड़ी
वजहें मोजूद हैं | इस वर्ग के साथ जो न्रशंसता जारी है , यही वो वजह है जिसके अंतर्गत लड़ते – लड़ते इंसान शोषण के खिलाफ खड़ा हो जाता है | दलितों के इस हुंकार
से ऊंची कही जाने वाली जातियां डर गयी हैं | उनके रानीतिक प्रतिपालक एक मोड़ पर
जरूर इसे राष्ट्र विरोधी भी कह सकते हैं | पर क्या ये पूछा जा सकता हूँ अपने समाज एक
बड़े तबके को हाशिये पर रखकर ‘राष्ट्र’ जैसी विशाल राजनीति संरचना टिकाई जा सकती है ?
आशुतोष तिवारी
भारतीय जन संचार संस्थान
यह ब्लॉग लेख वेब पोर्टल 'खबर की खबर' पर प्रकाशित हो चूका है | लिंक - http://khabarkikhabar.com/archives/2776
दैनिक जागरण अखबार में - लिंक - http://epaper.jagran.com/ePaperArticle/07-aug-2016-edition-Delhi-City-page_12-1270-629-4.html
(यह लेख दैनिक जागरण की वेबसाइट पर 'टॉप ब्लॉग' और 'खबर की खबर' पोर्टल पर पोर्टल पर अब तक सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला दूसरा लेख बन गया है | मोजूदा व्यू - 15000 )
आशुतोष तिवारी
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