“यह वैशाली मेट्रो स्टेशन दैनिक जागरण वालों ने खरीद लिया है क्या? देखो, यहां सिर्फ दैनिक जागरण दिखाई दे रहा है, और नाम भी ‘दैनिक
जागरण वैशाली’!”
रवि ये जानते हुए भी कि इसका
जवाब नहीं मिलेगा आफ़रीन से ये बातें बोल रहा था। गाजियाबाद के पुराने बस अड्डे से
वो दोनों आनंद विहार जा रहे थे। इस बीच तमाम उलझनों और परेशानियों से निकलना उनके
लिए आसान नहीं था। इस अंजाने शहर को अपना शहर बनाने की कोई हड़बड़ी उनमें नहीं
दिखती थी। दरअसल, इस
वक्त इस शहर से उन्हें कोई मतलब था ही नहीं, वो
दोनों तो सिर्फ अपने प्यार को बचाए/बनाए रखने के लिए भाग रहे थे। पूरे रास्ते भर
सीट के नीचे दोनों ने एक-दूसरे के हाथ को कसके पकड़ रखा था। कहीं छूट ना जाएं इस
बड़े और निर्दयी शहर में। उनकी नजरें बार-बार सड़कों पर भटककर चेहरों पर ही आतीं
थीं। बड़े शहरों की बड़ी-बड़ी इमारतों से उन्हें रत्ती भर भी इश्क नहीं था। उनका
शहर इस वक्त उसी ऑटो में था, जिसका
ड्राइवर दोनों को ना देखनें की लाख कोशिशों के बाद भी उन्हें देख रहा था। कभी जस्ट
सामने वाले मिरर से तो कभी साइड वाले से। भौतिकी में परावर्तन का एक भी नियम ऐसा
नहीं था, जिसका ड्राइवर इस वक्त लुफ्त ना उठा
रहा हो। लेकिन इश्कबाजों को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा था। वो तो सिर्फ एक-दूसरे
को जी-भरके देख लेना चाहते थे। ‘उत्तर-प्रदेश
आगमन पर धन्यवाद’ का कौशांबी
में लगा पोस्टर देखकर ही रवि समझ गया था कि दिल्ली का आनंद विहार पास में ही है।
120 रूपए, ऑटो
वाले को देकर दोनों आनंद विहार के फ्लोईओवर की तरफ जाने लगे। वो आनंद विहार जहां
पता नहीं कितनी प्रेम कहानियां रोज पनपती हैं और कितनी ही खत्म हो जाती हैं। आनंद
विहार इश्कबाजों का ठौर। इस फ्लाई ओवर पर मोहब्बत की कितनी कसमें खाईं गईं होंगी।
कितनों ने यहीं अपने प्यार का इज़हार किया होगा। खासतौर से यूपी वालों के लिए
मिलन-बिछुड़न की इकलौती जगह है आनंद विहार। फ्लाईओवर की रैलिंग पर रवि और आफ़रीन
दोनों एक-दूसरे का हाथ थामें खड़े थे। उन्हें नहीं पता था कि वो कहां जाना चाहते
हैं, उनकी
मंजिल क्या है? हजारो गाड़ियां खड़ी हैं, हजारो
दौड़ रहीं है। कभी ना रूकने वाली सड़क सभी को उनकी मंजिल की तरफ ले जा रही है।
लेकिन रवि और आफ़रीन जानते ही नहीं कि वो कहां जाएंगे, कहीं
जाएंगे भी या फिर आनंद विहार का ये फ्लाईओवर ही उनकी अंतिम मंजिल होगी! इतने बड़े
आनंद विहार में बस ही बस हैं लेकिन कोई ऐसी बस नहीं है जो उन्हें कहीं ऐसी जगह
पहुंचा दे जहां सिर्फ वो दोनों हों, उनकी
पहचान नहीं। उनकी नाम और उनका धर्म नहीं। अचानक
ही रवि ने आफ़रीन की तरफ देखा, तो
दोनों हंसने लगे। आफ़रीन आज खुल के हंस रही थी. एकदम खिलखिलाकर, गुलमोहर
की तरह खिल जाने वाली हंसी। गुलाब की पंखुड़ियों पर पड़े हुए पानी जैसी हंसी, या फिर
चांदनी रात में दूधिया रोशनी से नहाए ताज जैसी हंसी, नहीं
वो तो बिल्कुल आफ़रीन जैसी ही हंसी थी। प्यार, सादगी
और इश्क में लिपटी हुई मासूम-सी हंसी। आज हंसने से रोकने वाला उसके साथ कोई नहीं था। बल्कि हंसने पर
एकटक प्यार से देखने वाला उसका रवि उसके साथ था। आज किसी मजहबी किताब किसी भी किसम
की व्याख्या उसे तेज हंसने से नहीं रोके पायेगी
, किसी खुदा का हवाला देकर कोई उसके
खुलेपन पर बंदिशे नही लगाएगा | आज वो
भी चन्द्रमुखी सी सबके सामने अपने चेहरे
की खूबसूरती को पलाश की पंखुड़ियों की तरह खिलने देगी।
आफ़रीन हंस रही है, रवि
सिर्फ आफ़रीन को ही देख रहा है। जैसे निशा में चांद को चारो तरफ से तारे देखते
हों। जैसे दूधिया रोशनी से नहाए ताज को कोई कवि अपनी कविता की प्रेयसी के रूप में
देखता हो। उसी तरह से रवि आज आफ़रीन को देख रहा है। तभी मंद हवा का एक झोंका
आफ़रीन की तरफ शायद खुदा का संदेश लेकर पहुंचता है और उसके कानों में कहता है खुदा
ने तुम्हें इतना खूबसूरत इसी लिए बनाया था, जिससे
तुम खुल के हंस सको, काले
लिबास के पीछे छिपे रहने के लिए नहीं। इस
झोंके ने आफ़रीन के बाएं गाल की आंख के ऊपर 8-10 लटें
ला दीं। आनंद विहार का फ्लाईओवर बरक्स ही रवि को जन्नत नज़र आने लगा था। अब आफ़रीन
मुमताज जैसी है, इसके
लिए एक ताज होना चाहिए। “जब-जब
देखा ताज किसी की सुधियां घिर आईं और ये अखियां भर आईं” रवि जगदीश्वर चतुर्वेदी की ये लाइन याद करते-करते लगभग रूआसा
हो गया था। दरअसल, सार्वजनिक
फ्लाईओवर के सिवाय कोई और ठौर दोनों के पास नहीं था। दोनों वहीं बैठ गए, आफ़रीन ने रवि के कंधे पर अपना सिर रख दिया। आज पहली बार रवि
को आभास हुआ था, कि
प्यार में थकान भी नहीं होती। रवि और आफ़रीन दोनों ‘अकेले’ थे, फ्लाईओवर पर। कहने को तो पूरी भीड़ थी लेकिन उन्हें कोई नहीं
जानता था। कोई उनका नाम और उनकी पहचान नहीं जानता था, यही तो चाहते थे दोनों। अब यहां कोई भी आफ़रीन के मुस्लिम
होने और उसके हिन्दू होने और सबसे बढकर दोनों के साथ होने पर कोई सवाल नहीं उठाएगा। हिन्दू और मुसलामानों शब्दों की दस्तक ने रवि को फिर से बलिया पहुंचा दिया। लोहे के बड़े
गेट वाले घर में जो कल तक रवि का था। ठाकुर महेंद्र प्रताप आ चुके हैं। रवि जानता था, कि आज भी वही होगा। “इस
लड़के ने पूरे गांव में हमारी नाक कटवा दी। ठाकुर खानदान की सात पीढ़ियों पर कलंक
लगा दिया। हमारे पूर्वजों ने जो इज्जत, जो नाम
इस गांव में बनाया सब इसने मिट्टी में मिला दिया।” बस, रोज की
तरह ठाकुर साहब बोलते रहे और रवि अपनी किसी धुन में खोया रहा। वहीं दूसरी तरफ
आफ़रीन को भी उसके घर में तमाम आयतों का रोज हवाला दिया जाता था। खुदा का वास्ता
दिया जा रहा था। कुरान की कसमें खिलाई जा
रहीं थीं। इस्लाम की महानता का बखान किया जा रहा था। “एक काफिर से तू क्यों मिलती है। किसी मुस्लिम लड़के को देख
तेरा उसी के साथ निकाह करवा दूंगा।” आफ़रीन
के अब्बाजान रोज आफ़रीन से कहते, लेकिन
आफ़रीन चुप रहती। कुरान में वो रोज उस आयत को ढूंढती जिसमें लिखा हो कि ‘हिंदू लड़के से मुस्लिम लड़की इश्क नहीं कर सकती। निकाह नहीं
कर सकती!‘
एक दिन ठाकुर साहब अपनी दुकान से लौट रहे थे, तो रास्ते में स्वघोषित पंचों की आवाज उनके कानों में पड़
गई। “ये ठाकुर साहब का रवि तो कटुआ की
लड़की के चक्कर में फंसा है। बहुत गलत है ये। ये सब ही करना है तो अपने धर्म में
करो, अपनी जाति में करो।” इतना सुनना था कि ठाकुर साहब का पारा सातवें आसमान पर था।
गांव के ही
‘बुद्धि विकास केंद्र’ (सरकारी देशी शराब का ठेका) से दो बोतल लगा कर घर पहुंचे। 8-10 थप्पड़ रवि में लगाकर, उसे दुत्कारते हुए कहा कि “सात पीढ़ियों से संस्कारीवान ठाकुर खानदान पर तूने कलंक लगा दिया, रवि ‘चौहान’। रवि चौहान अब इस घर से निकल जाओ। तुम्हारी यहां कोई जरूरत
नहीं।” ठाकुर महेंद्र प्रताप ने चौहान शब्द
पर ज्यादा जोर दिया था, शायद
कहना चाहते हों कि आज से तुम चौहान नहीं हो। (ठाकुर महेंद्र प्रताप ने आज तक अपने
बेटे को सिर्फ रवि नाम से ही पुकारा था, आज
पहली बार उन्होंने रवि चौहान कहा था) ठाकुर साहब ने अपने इकलौते लाड़ले लड़के को
समाज में होने वाली कथित बुराई और आलोचना से बचने के लिए निकाल दिया था। रात के 8 बजे से ही रवि आफ़रीन के घर के पीछे वाली झोपड़ी में बैठा
है। सुबह जब मोहम्मद खलील अली को पता चला तो उन्होंने भी वही किया जो एक मुस्लिम
पड़ोसी होने के नाते उन्हें करना था। आफ़रीन पर जमकर डांट पड़ी।
सुबह के 8 बजने
के एक घंटे बाद आफ़रीन अपने घर के पीछे वाली झोपड़ी में पहुंची, अक्सर वो दोनों यहीं मिला करते थे। फिर उसी झोपड़ी में आंखों
ही आंखों में तय हो गया था कि अब यहां नहीं रूकना, भाग जाना है। एक ऐसी जगह जहां कोई उनका नाम और उनका धर्म ना जानता
हो। भागने के नाम पर पूर्वांचल वालों को दिल्ली ही याद आता है। तो बलिया से दिल्ली
वाली ट्रेन पकड़ कर निकल लिए थे, लेकिन
गाजियाबाद रेलवे स्टेशन पर उतर गए थे। ‘पलायन
की प्रेमिका
और विस्थापितों के शहर दिल्ली’ में वो दोनों फ्लाईओवर पर बेख़बर पड़े हुए थे। सुबह 6 बजे जब मेट्रो गुजरी तो दोनों अकबका कर उठे। वो झोपड़ी में
नहीं दिल्ली के आनंद विहार फ्लाईओवर पर थे, यही
दोनों को सुकुन दे रहा था। जो भी रात तक दोनों के दिमाग में चल रहा था वो एक गुजरा
हुआ कल था। अब,
रवि ने आफ़रीन का हाथ कसकर
थाम लिया था,
बिल्कुल ऐसे कि अब कोई
मज़हब/जाति का ठेकेदार आ जाए वो इस हाथ को नहीं छोड़ेगा। यही तो आफ़रीन चाहती थी।
फ्लाईओवर से नीचे उतरते समय रवि सोच रहा था कि अब आफ़रीन मुझे मिल गई। फिर एकदम से उसके मन में ख्याल आया कि ‘वो लोग’ मेरी
आफ़रीन को मुझसे दूर करना चाहते थे, जिसे
मैंने अभी तक छुआ तक नहीं इस डर से कहीं छुने से मुरछा ना जाए। उस आफ़रीन को जिसकी
मैं इबादत करने लगा था। मैंने सही किया। अब रवि को एक कमरा चाहिए था, जहां वो और आफ़रीन रह सकें। एक ऑटो में बैठकर चल दिए। दोनों
को ऑटो वाले ने ही दिल्ली के सीमापुरी में एक छोटा-सा कमरा उन्हें दिला दिया।
रवि और आफ़रीन दोनों साथ थे। ग्रेजुएट रवि को शुरूआती कुछ
महीनें संघर्ष करना पड़ा फिर उसे ठीकठाक नौकरी मिल गई, वहीं आफ़रीन तो कुछ दिनों बाद ही लक्ष्मीनगर के एक बीपीओ में
काम करने लगी थी।
आज दोनों साथ रहते हैं, कोई
उनसे उनका धर्म नहीं पूछता। कोई उनकी जाति जानने की कोशिश नहीं करता। आफ़रीन आज भी
ऑफिस में आफ़रीन है, लेकिन
घर में कविता। दरअसल, जब
किराए पर कमरा लेने के लिए दोनों घूम रहे थे, उस
वक्त रवि और आफ़रीन के नाम से ही लोग मना कर देते थे। तब आफ़रीन के प्रस्ताव पर ही
उसने आफ़रीन को दिल्ली में दूसरा नाम कविता दिया था। रवि आज खुश है, लेकिन एक बात उसे चुभती है कि आफ़रीन को मेरी वजह से कविता बनना
पड़ा! हमारे समाज की नैतिकताओं का पालन करते-करते कितनी आफ़रीन कविता बनीं होंगी!
रवि और आफ़रीन को आज भी यकीं है कि एक दिन ठाकुर महेंद्र प्रताप और मोहम्मद खलील
अली साथ-साथ आएंगे और कहेंगे कि चलो मेरे बच्चो...लेकिन वो दिन क्या आएगा? आएगा
तो कब? सीमापुरी
से दोनों अब द्वारका शिफ्ट हो गए हैं। कॉरिडोर में खड़े रवि को देखकर कविता भी
उसके करीब आ जाती है। “रवि
क्या तुम मुझसे प्यार करते हो।” “हां!” कविता
के चेहरे को गंभीर भाव से देखते हुए रवि ने कहा। “क्या
तुम मुझसे शादी करोगे?” “हां।” उसी
तरह सुबह के सूरज की ठंडी रोशनी में रवि ने हल्की लेकिन गंभीर और विश्वसनीय आवाज
में जवाब दिया। फिर आफ़रीन ने सामने इमारतों की खुली हुई खिड़कियों को देखते हुए, हाथ को
रैलिंग से थोड़ा ऊपर उठाकर धीमे-से कहा “ रवि, अब मैं
कविता बनना चाहती हूं, ऑफिस
में भी, रवि की
कविता।” रवि
अवाक् रह गया। उसे अपने ऊपर शर्म आने लगी। वो क्यों नहीं नसीर, अहमद
या फिर नाज़िम बना आफ़रीन का नाज़िम! क्या उसकी मोहब्बत आफ़रीन से कम है? या फिर
उसके नाम के पीछे का ‘चौहान’ अभी तक
वो पूरी तरह निकल नहीं पाया है। रवि सोच रहा था, अपने
आप में हीनता और लज्ज़ा महसूस कर रहा था। औरत इसीलिए महान होती है...सोचते-सोचते
तपाक से बोला- “मुझे मेरी कविता से बहुत मोहब्बत है, मैं ‘कविता’ की
गहराई में जिदंगी-भर के लिए उतरना चाहता हूं।” “तो फिर
अब तुम वो कर सकते हो जो सालों से सोच रहे हो।” इतना
सुनते ही रवि कविता के बाएं गाल की आंख के ऊपर आ गईं 8-10 लटों को अपने हाथ से हटाने लगा। इस एक पल का इंतजार वो कई
सालों से कर रहा था। उसने कविता के इन्हीं लटों की खातिर अपने बलिया और अपने
धर्म/जाति से बगाबत की थी। दुनिया के कैलेंडर में वो तारीख प्रेम की तवारीख के रूप
में खुद इतिहास बन गई। द्वारका सेक्टर-21 का
ब्लॉक-A का
मकान नंबर 33/43 के कॉरिडोर में रवि रोज कविता की आंख में आ रहीं लटों
को हटाता है। कोई भी नहीं पूछता कि तुम्हारा धर्म क्या है? बलिया
का रवि चौहान और आफ़रीन अली अब दिल्ली के रवि सर और कविता मैंम बन गए। सभी प्रेम
कहानियों का यही अंत हो, अगर
प्रेम करने वालों में डरने की जगह बगावत करने का साहस आ जाए। इंतजार आज भी है कि किसी दिन ठाकुर महेंद्र प्रताप सिंह और मोहम्मद खलील अली
द्वारका सेक्टर-21 के
ब्लॉक-A के मकान नंबर 33/43 में रवि और कविता को कबूल करने
आएंगे....!
चमन मिश्रा
(गेस्ट ब्लॉगर
परिचय - लेखक कई वेब पोर्टल्स पर लेख /कहानियों
इत्यादि का नियमित रूप से लेखन करते हैं | इस समय इंडिया टीवी
में कार्यरत हैं | )
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