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डिटेल में पढिये वीर सावरकर का माफीनामा !
सावरकर पर बात-चीत आलोचनाओं के बिना अधूरी है | वह गांधी की हत्या के
आरोपी थे | बाद में अदालत ने सबूतों के अभाव में उन्हें छोड़ दिया | उनकी
आलोचना यह कहकर भी की गयी कि उन्होंने भारत में बहुसंख्यक साप्रदायिकता की
एक किताबी जमीन तैयार की | लेकिन उनकी राजनीतिक जीवनी का यदि कोई सबसे
जयादा विवादित पन्ना रहा तो वह था - जेल में रहकर अंग्रेज अधिकारियों को
लिखे गये उनके चार - चार माफीनामे |
दरअसर 1975 में भारत
सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने अभिलेख सामग्री पर आधारित एक किताब पब्लिश की
| इस किताब को लिखा था आर सी मजूमदार ने , जो अपने साप्रदायिक
पूर्वाग्रहों के लिए बदनाम थे | उन्होंने सावरकर के पक्ष में खूब लिखा पर
दस्तावेजों को दबाने में नाकाम रहे | इस किताब के छपने के साथ - साथ वह सभी
डोक्युमेंट पब्लिश हो गए जिसमे सावरकर के माफीनामे का भी जिक्र था | तब से
संघ के पोस्टर बॉय बताये जा सकने वाले सावरकर की देश भक्ति पर सवाल किये
जाने लगे |
कहा जाता है की सावरकर अंडमान की जेल में हो
रहे बर्बर बर्ताव से टूट गए थे | तभी इन्होने 30 अगस्त 1911 को अपनी पहली
दया याचिका लिखी जिसे खारिज कर दिया गया | इसके बाद दूसरा माफीनामा 14
नवंबर 1913 को लिखा गया | इसके बाद क्रमशः 1917 और 1920 में दो माफीनामे
लिखे | सार्वजनिक तौर पर पूर्ण माफीनामे मौजूद नहीं हैं लेकिन हम 1913 में
दाख़िल की गयी वीडी सावरकर की याचिका आपको पढवा रहे हैं:
'सेवा
में, गृह
सदस्य, भारत सरकार
मैं
आपके सामने दयापूर्वक विचार के लिए निम्नलिखित बिंदु प्रस्तुत करने की याचना करता हूं:
(1) 1911 के जून में
जब मैं यहां आया, मुझे अपनी पार्टी के दूसरे
दोषियों के साथ चीफ कमिश्नर के ऑफिस ले जाया गया. वहां मुझे ‘डी’
यानी
डेंजरस (ख़तरनाक) श्रेणी के क़ैदी के तौर पर वर्गीकृत किया गया; बाक़ी दोषियों को ‘डी’ श्रेणी में
नहीं रखा गया. उसके बाद मुझे पूरे छह महीने एकांत
कारावास में रखा गया. दूसरे क़ैदियों के साथ ऐसा नहीं किया गया. उस दौरान मुझे नारियल की धुनाई के काम में लगाया गया, जबकि
मेरे हाथों से ख़ून बह रहा था. उसके बाद मुझे तेल
पेरने की चक्की पर लगाया गया जो कि जेल में कराया
जाने वाला सबसे कठिन काम है. हालांकि, इस दौरान मेरा आचरण असाधारण रूप से अच्छा रहा, लेकिन फिर भी छह महीने के बाद
मुझे जेल से रिहा नहीं किया गया,
जबकि
मेरे साथ आये दूसरे दोषियों को रिहा कर दिया गया. उस समय से अब
तक मैंने अपना व्यवहार जितना संभव हो सकता है, अच्छा बनाए
रखने की कोशिश की है.
(2) जब मैंने
तरक्की के लिए याचिका लगाई, तब मुझे कहा गया कि मैं विशेष श्रेणी का क़ैदी हूं और इसलिए मुझे तरक्की नहीं दी
जा सकती. जब हम में से किसी ने अच्छे भोजन या विशेष
व्यवहार की मांग की, तब हमें कहा गया कि ‘तुम
सिर्फ़ साधारण क़ैदी हो, इसलिए तुम्हें वही भोजन खाना होगा,
जो दूसरे क़ैदी खाते हैं.’ इस तरह
श्रीमान आप देख सकते हैं कि हमें विशेष कष्ट
देने के लिए हमें विशेष श्रेणी के क़ैदी की श्रेणी में रखा गया है.
(3) जब
मेरे मुक़दमे के अधिकतर लोगों को जेल से रिहा कर दिया गया, तब मैंने भी रिहाई की दरख़्वास्त की. हालांकि, मुझ पर अधिक
से अधिक तो या तीन बार मुक़दमा चला
है, फिर
भी मुझे रिहा नहीं किया गया, जबकि जिन्हें रिहा किया गया, उन पर तो दर्जन से भी ज़्यादा बार
मुक़दमा चला है. मुझे उनके साथ इसलिए नहीं
रिहा गया क्योंकि मेरा मुक़दमा उनके साथ चल रहा था. लेकिन जब
आख़िरकार
मेरी रिहाई का आदेश आया, तब संयोग से कुछ राजनीतिक क़ैदियों को जेल में लाया गया, और मुझे उनके साथ बंद कर दिया
गया, क्योंकि
मेरा मुक़दमा उनके साथ चल रहा था.
(4) अगर
मैं भारतीय जेल में रहता, तो इस समय तक मुझे काफ़ी राहत मिल गई होती. मैं अपने घर ज़्यादा पत्र भेज पाता; लोग
मुझसे मिलने आते. अगर मैं साधारण और
सरल क़ैदी होता, तो इस समय तक मैं इस जेल से रिहा कर दिया गया होता और मैं टिकट-लीव की उम्मीद कर रहा होता. लेकिन, वर्तमान
समय में मुझे न तो भारतीय जेलों की कोई सुविधा
मिल रही है, न ही इस बंदी बस्ती के नियम मुझ
पर पर लागू हो रहे हैं. जबकि मुझे दोनों की असुविधाओं का सामना करना पड़ रहा है.
(5) इसलिए
हुजूर, क्या मुझे भारतीय जेल में भेजकर या मुझे दूसरे क़ैदियों की तरह साधारण क़ैदी घोषित करके, इस
विषम परिस्थिति से बाहर निकालने की
कृपा करेंगे? मैं किसी तरजीही व्यवहार की मांग नहीं कर रहा हूं, जबकि
मैं मानता हूं कि एक राजनीतिक बंदी होने के नाते मैं किसी भी
स्वतंत्र
देश के सभ्य प्रशासन से ऐसी आशा रख सकता था. मैं तो बस ऐसी रियायतों
और इनायतों की मांग कर रहा हूं, जिसके हक़दार सबसे वंचित दोषी और आदतन अपराधी भी माने जाते हैं. मुझे स्थायी तौर पर जेल में बंद
रखने की वर्तमान योजना को देखते हुए मैं जीवन और
आशा बचाए रखने को लेकर पूरी तरह से नाउम्मीद
होता जा रहा हूं. मियादी क़ैदियों की स्थिति अलग है. लेकिन श्रीमान
मेरी आंखों के सामने 50 वर्ष नाच रहे हैं. मैं इतने लंबे समय को बंद कारावास में गुजारने के लिए नैतिक ऊर्जा कहां से जमा करूं,
जबकि
मैं उन रियायतों से भी वंचित हूं, जिसकी
उम्मीद सबसे हिंसक क़ैदी भी अपने जीवन को सुगम
बनाने के लिए कर सकता है? या तो मुझे भारतीय जेल में भेज दिया जाए,
क्योंकि
मैं वहां (ए) सज़ा में छूट हासिल कर सकता हूं; (बी) वहां मैं
हर चार महीने पर अपने लोगों से मिल सकूंगा.
जो लोग दुर्भाग्य से जेल में हैं, वे ही यह जानते हैं कि अपने सगे-संबंधियों
और नज़दीकी लोगों से जब-तब मिलना कितना बड़ा
सुख है! (सी) सबसे बढ़कर मेरे पास भले क़ानूनी नहीं, मगर 14
वर्षों
के बाद रिहाई का नैतिक अधिकार तो होगा. या अगर मुझे भारत नहीं भेजा सकता है, तो कम से कम मुझे किसी अन्य क़ैदी की
तरह जेल के बाहर आशा के साथ निकलने की
इजाज़त दी जाए, 5 वर्ष के बाद मुलाक़ातों की इजाज़त दी जाए, मुझे टिकट लीव दी जाए, ताकि मैं अपने परिवार को यहां
बुला सकूं. अगर मुझे ये रियायतें दी
जाती हैं, तब मुझे सिर्फ़ एक बात की शिकायत रहेगी कि मुझे सिर्फ़ मेरी ग़लती का दोषी मान जाए, न कि दूसरों
की ग़लती का. यह एक दयनीय स्थिति है कि
मुझे इन सारी चीज़ों के लिए याचना करनी पड़ रही है, जो सभी इनसान का मौलिक अधिकार है! ऐसे समय में जब एक तरफ यहां क़रीब 20
राजनीतिक बंदी हैं, जो जवान, सक्रिय और
बेचैन हैं, तो दूसरी तरफ बंदी बस्ती के नियम-क़ानून
हैं, जो
विचार और अभिव्यक्ति की आज़ादी को न्यूनतम संभव स्तर तक
महदूर करने वाले हैं; यह अवश्यंवभावी है कि इनमें से कोई, जब-तब किसी न किसी क़ानून को तोड़ता हुआ पाया जाए. अगर ऐसे सारे कृत्यों के
लिए सारे दोषियों को ज़िम्मेदार ठहराया जाए,
तो
बाहर निकलने की कोई भी उम्मीद मुझे नज़र नहीं
आती.
अंत
में, हुजूर,
मैं
आपको फिर से याद दिलाना चाहता हूं कि आप दयालुता दिखाते
हुए सज़ा माफ़ी की मेरी 1911 में भेजी गयी याचिका पर पुनर्विचार करें और इसे भारत सरकार को फॉरवर्ड करने की अनुशंसा करें.
भारतीय
राजनीति के ताज़ा घटनाक्रमों और सबको साथ लेकर चलने की सरकार की नीतियों ने संविधानवादी रास्ते को एक बार फिर खोल दिया है. अब
भारत और मानवता की भलाई चाहने वाला कोई भी
व्यक्ति, अंधा होकर उन कांटों से भरी राहों
पर नहीं चलेगा, जैसा कि 1906-07 की नाउम्मीदी और उत्तेजना से भरे वातावरण ने हमें शांति और तरक्की के रास्ते से भटका दिया था.
इसलिए
अगर सरकार अपनी असीम भलमनसाहत और दयालुता में मुझे रिहा करती है, मैं
आपको यक़ीन दिलाता हूं कि मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक रहूंगा और अंग्रेज़ी सरकार के प्रति वफ़ादार रहूंगा, जो
कि विकास की सबसे पहली शर्त है.
जब
तक हम जेल में हैं, तब तक महामहिम के सैकड़ों-हजारें वफ़ादार प्रजा के घरों में असली हर्ष और सुख नहीं आ सकता, क्योंकि ख़ून
के रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता. अगर हमें
रिहा कर दिया जाता है, तो लोग ख़ुशी और कृतज्ञता
के साथ सरकार के पक्ष में, जो सज़ा देने और बदला लेने से ज़्यादा माफ़ करना और सुधारना जानती है, नारे
लगाएंगे.
इससे
भी बढ़कर संविधानवादी रास्ते में मेरा धर्म-परिवर्तन भारत और भारत से बाहर रह रहे उन सभी भटके हुए नौजवानों को सही रास्ते पर
लाएगा, जो कभी मुझे अपने
पथ-प्रदर्शक के तौर पर देखते थे. मैं भारत सरकार जैसा चाहे, उस रूप में सेवा करने के लिए तैयार हूं, क्योंकि जैसे
मेरा यह रूपांतरण अंतरात्मा की पुकार है, उसी
तरह से मेरा भविष्य का व्यवहार भी होगा. मुझे जेल
में रखने से आपको होने वाला फ़ायदा मुझे जेल से रिहा करने से होने वाले होने वाले फ़ायदे की तुलना में कुछ भी नहीं है.
जो
ताक़तवर है, वही दयालु हो सकता है और एक होनहार पुत्र सरकार के दरवाज़े के अलावा और कहां लौट सकता है. आशा
है, हुजूर
मेरी याचनाओं पर दयालुता से विचार करेंगे.
वीडी
सावरकर
(स्रोत: आरसी मजूमदार, पीनल
सेटलमेंट्स इन द अंडमान्स, प्रकाशन विभाग, 1975
(गूगल से सीधे ब्लॉग पर जाने के लिए 'Bhatkan ka adarsh' सर्च करें |)
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