कश्मीरी पंडितो के साथ जो हुआ, वह किसी नरसंघार से कम नहीं था । लाखों कश्मीरियों को अपने ही देश में शरण ले कर तम्बुओं में रहना पड़ा । उन लोगों के साथ घटित हुयी त्रासदी इस बात की केस स्टडी है कि किस तरह क़ौम के नाम पर पैदा की गयी नफ़रत और ढुलमुल राजनीति ने साझा संस्क्रति वाले एक ख़ूबसूरत समाज को तबाह कर दिया ।कश्मीर की समस्या में उसके इतिहास की अपनी जटिलताएँ हैं लेकिन कश्मीरी पंडितों की तकलीफ़ एक समुदाय के साथ हुयी ज़्यादती का मामला है जिसे हर भारतीय को महसूस करना चाहिए।
यह कहानी 1986 से शुरू होती है , जब सीएम फ़ारूख अब्दुल्ला का बहनोई ग़ुलाम मोहम्मत शाह , फ़ारूख से सत्ता छीन कर अपने हाथ में ले लेता है है । तब तक कश्मीर पाकिस्तान की तमाम टूट पैदा करने की कोशिशों के बावजूद शांत था । ग़ुलाम मोहम्मत ठीक आदमी नहीं था । उसे कौमों के बीच नफ़रत फैला कर राजनीति करने का इतना शौक़ था कि उसने घोषणा कर दी कि कश्मीर के न्यू सिक्रेटियन में एक पुराने मंदिर की जगह पर वह एक शाही मस्जिद बनवाएगा ।
कश्मीरी पंडितों की आबादी उस वक़्त कश्मीर में 5 से 15 फ़ीसदी बताई जाती है । उन्होंने इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ एक स्वाभाविक मोर्चा खोल दिया । घाट लगा कर नफ़रत फैलाने का इंतज़ार कर रहे कट्टरपंथियों के लिए यह एक अहम मौक़ा था और उनका साथ दे रहा था महत्वाकांक्षी ग़ुलाम मोहम्मद ।ऐसे माहौल में दंगे भड़कने स्वाभाविक थे । परिणामतः साउथ कश्मीर और सोपोर में जम कर हिंसा हुयी, जिससे पहली बार चुन - चुन कर कश्मीरी पंडितो को निशाना बनाया गया ।
12 मार्च 1986 को राज्यपाल जगमोहन ने सरकार की विफलता को देखते हुए राज्य में इमर्जेंसी लगा दी । ग़ुलाम मोहम्मद की सरकार बर्खास्त कर दी गयी । एक साल बाद 1987 में कश्मीर में विधानसभा चुनाव हुए । इन चुनाव में कट्टर पंथियों की करारी हार हुई, जिससे वह बौखला गए । साफ़ था ,आम कश्मीरी शांति से रहना चाहते थे । चूँकि कट्टरवादियों को यह मंज़ूर नहीं था , तो उन्होंने चुनाव पर सवाल उठाते हुए हथियार उठाने का फ़ैसला किया और बना - जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ़्रंट । इसका इरादा था कश्मीर को भारत से अलग करना ।
इधर रूस ने अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा किया हुआ था, जिसके ख़िलाफ़ पाकिस्तान अपने यहाँ से क़बिलाई लड़ाके अफगानिस्तान निर्यात कर रहा था। इन लड़ाकों का ट्रेनिंग कैम्प था पाक अधिकृत कश्मीर। तख़्तापलट से सत्ता में आया जनरल जियाउलहक़ यह कभी नहीं चाहता था कि कश्मीर शांत रहे। जब कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के ख़िलाफ़ कट्टरता बढ़ने लगी, तो उसमें अहम रोल बोर्डर के उस तरफ़ ने इन कबिलियों का भी था,जिन्हें मरने -मारने के लिए ही तैयार किया जा रहा था।
नफ़रत की बुनियाद पर बने इस फ़्रंट ने अपने कारनामे दिखाने शुरू कर दिए । 14 सितंबर 1989 को बीजेपी के उपाध्यक्ष टीका राम टपलू की हत्या कर दी गयी ।इसके डेढ़ महीने बाद एक रिटायर जज नील कंठ गंजू को मार दिया गया । उनकी पत्नी अभी तक मिसिंग है । इसके बाद एक नामी वक़ील प्रेम नाथ भट्ट की हत्या कर दी गयी । इन सभी में एक बात कामन थी । यह सभी कश्मीरी पंडित थे और कश्मीर के एलीट क्लास में बिलांग करते थे । कट्टवादियों का कहना था कि संख्या में बेहद कम होने के बावजूद कश्मीरी पंडितन ज़्यादातर ऊँचे ओहदों पर क़ब्ज़ा किए हुए हैं।
4 जनवरी 1990 । इस दिन से कश्मीर की राजनीति करवट लेने लगी। कश्मीर के अल -सफ़ा जैसे उर्दू अख़बराओं में लगातार यह विज्ञापन आना शुरू हो गया कि कश्मीर में रहने वाले सभी कश्मीरी पंडित अपना घर -बार छोड़ कर यहाँ से चले जाँये । यह विज्ञापन पाकिस्तान के आतंकी संगठनो और कट्टर पंथियों के मिले जले दबाव की वजह छापे जा रहे थे।
19 जनवरी 1990 का दिन कश्मीर के भविष्य का का काला दिन था इस दिन इस क़दर दंगे भड़के कि लाखों कश्मीरियों को घाटी छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। कई औरतों से बलात्कार हुआ, हज़ारों कश्मीरी पंडितों की हत्याएँ हुयी, यह द्र्श्य किसी नरसंहार से कम नहीं था। सरकारी आँकड़ो में मारे गए पंडितों की संख्या साढ़े तीन सौ है लेकिन सभी जानते हैं कि यह संख्या हज़ारों में थी। 1989 में वीपी सिंह की जनता पार्टी सरकार थी,जो बोफ़ोर्स पर राजीव गांधी को घेरते हुए सत्ता में पहुँचे थे। कश्मीर में फ़ारूक़ अब्दुल्ला की सरकार थी। यह सरकारों की नाकामी ही थी कि इतनी बड़ी त्रासदी एक समूचे समुदाय को झेलनी पड़ी।
उस दौरान घाटी में तीन तरह के कश्मीरी पंडित थे जिन्हें बनमासी,मलमासी और बुहिर नाम से जाना जाता है। ज़्यादातर कश्मीरी पंडित या तो शरनाथी कैम्पों में रह रहे हैं या फिर जम्मू और दिल्ली जैसे बड़े शहरों में अपना जीवन बिता रहे हैं। आज भी घाटी के 187 जगहों चार हज़ार के आस पास कश्मीरी पंडित हैं । इन कश्मीरी पंडितों को सरकार से न्याय का इंतज़ार है, जो कि विडम्बना है कि किसी ने भी नहीं किया है।
भाजपा ने कश्मीरी पंडितों से वादा किया था कि वह निर्वासित कश्मीरी पंडितों को एक स्मार्ट सिटी में बसाएगी । लेकिन दुखद यह है कि अभी तक ऐसा कुछ भी नहीं किया गया है। 19 जनवरी 2016 को बीबीसी ने एक रिपोर्ट की है । इस रिपोर्ट के मुताबिक़ कश्मीरी पंडित भाजपा से बेहद नाराज़ है और सरकार के ख़िलाफ़ धरना प्रदर्शन कर रहे हैं।रिपोर्ट के मुताबिक़ पंडितों का मानना है कि उन्होने 2015 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को वोट दिया था । इससे पहले 2014 के आम चुनाव में भी पंडितों ने भाजपा को वोट दिया था । लेकिन भाजपा ने पंडितों के लिए कुछ नहीं किया। वादे किए गए पर अधूरा छोड़ दिया गया। यह बात सिर्फ़ भाजपा की नहीं है बल्कि सभी सरकारों ने कश्मीरी पंडितों के मसले पर दगेबाज़ी की है। हिफ़ाज़त का अधिकार,गरिमा से रहने का अधिकार हमारा बेसिक राइट है। अफ़सोस,कि अपने देश के एक समुदाय को यह राइट हम 29 साल बाद भी नहीं दिला पाए हैं । यह पूरी त्रासदी नफ़रत की राजनीति के प्रति हमें सचेत करती है ।
आशुतोष तिवारी
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Mulu
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