'नमामि गंगे' - सबसे बड़ा धोखा !

यदि सरकारी योजनाओं के नाम पर ग़ौर करें  तो ‘‘नमामि  गंगे’ गंगा नदी की तरह ही बेहद  ख़ूबसूरत और रचनात्मक नाम है । गंगा एक नदी के तौर पर हिंदुस्तान  की सांस्क्रतिक और आध्यात्मिक धरोहर से कहीं ज़्यादा  है । देश की 40 फ़ीसदी आबादी की ज़िंदगी  इस नदी से किसी न किसी तरह से जुड़ी हुई  है । शायद इसीलिए 2014 में न्यूयॉर्क में मैडिसन स्क्वायर गार्डन से  प्रधानमंत्री ने गंगा की सफ़ाई को एक आर्थिक  एजेंडा बताते हुए कहा था, “अगर हम यह  साफ करने में सफल हुए  तो यह देश की 40 फीसदी आबादी के लिए एक बड़ी मदद साबित होगी।” 2014 में ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  बनारस में गंगा नदी के प्रति अपनी आत्मीयता ज़ाहिर करते हुए कह चुके हैं  कि माँ गंगा की सेवा करना उनका भाग्य है ।उन्हें माँ गंगा ने बुलाया है ।’  शायद इसी सेवा भाव की प्रेरणा से सरकार गंगा नदी को पुनर्जीवित करने के लिए एक  योजना ले कर आई थी  ,जिसका नाम है - ‘नमामि गंगे’ । यह लेख से इस योजना के क्रियान्वयन की पड़ताल है ।


क्या है योजना - 


सरकार की भाषा में ‘नमामि गंगे’ एक  सुनयोजित  ‘गंगा बचाओ मिशन’ है ,जिसका इरादा  गंगा नदी को प्रदूषण से निजात दिला कर कर उसे पुनर्जीवित करना है ।  केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस योजना के लिए  20,000 करोड़ रुपए खर्च करने की मंजूरी  दी थी  । सरकार ने ‘नमामि  गंगे’  से जुड़ी सभी गतिविधियों को तीन चरणों  में अंजाम देने की योजना बनाई  थी ।  पहली , शुरूआती स्तर की गतिविधियाँ ,  जिससे तत्काल प्रभाव देखा जा सके , दूसरी,  मध्यम अवधि की गतिविधियाँ  जिनको  5 साल के भीतर लागू किया जाना है  और तीसरी लंबी अवधि की गतिविधियाँ  , जिन्हें 10 साल के भीतर लागू किया जाना है । 

योजना की शुरूआती गतिविधि के अंतर्गत   नदी की उपरी सतह की सफ़ाई , ठोस कचरे की समस्या,  शौचालयों  का निर्माण; शवदाह गृह का नवीकरण, घाटों के निर्माण, मरम्मत और आधुनिकीकरण पर फ़ोकस किया जाना था  । मध्यम अवधि की गतिविधियों के अंतर्गत नदी में नगर निगम और उद्योगों से आने वाले कचरे की समस्या को हल करने का इरादा था । नगर निगम से आने वाले कचरे की समस्या को हल करने के लिए अगले 5 वर्षों में 2500 एमएलडी अतिरिक्त ट्रीटमेंट कैपेसिटी के  निर्माण की बात कही  गई थी । 

लंबी अवधि में इस कार्यक्रम को बेहतर और टिकाऊ बनाने के लिए  वित्तीय सुधार करने के लिए कहा गया था । परियोजना की सफलता के लिए सरकार  पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप मॉडल पर भी विचार कर रही थी । इन गतिविधियों के अलावा योजना के अंतर्गत जैव विविधता को बचाने , वन लगाने और पानी की गुणवत्ता की निगरानी के लिए भी कदम उठाए जाने की बात की गयी थी । ‘नमामि गंगे’ के तहत नदी के पारिस्थितिकी तंत्र की स्थिति में सुधार करने के लिए 30,000 हेक्टेयर भूमि पर वन लगाने का निश्चय लिया गया था । व्यापक स्तर पर पानी की गुणवत्ता की निगरानी के लिए 113 रियल टाइम जल गुणवत्ता निगरानी केंद्र स्थापित करने की बात भी इस योजना का हिस्सा  थी । 

‘नमामि गंगे’ योजना  की हक़ीक़त 


केंद्र सरकार ने 2015 में जब नमामि गंगे मिशन शुरू किया तब 100 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट प्रोजेक्ट शुरू हुए थे, लेकिन अब तक सिर्फ 10 पूरे हो सके हैं । नमामि गंगे मिशन का एक बड़ा  उद्देश्य सीवेज का ट्रीटमेंट और सीवर लाइन बिछाना है , ताकि गंगा में गिरने वाले गंदे पानी से निजात पाई जा सके।  इस काम के लिए कुल 28 हजार करोड़ रुपये जारी किए गए थे.लेकिन  काम इतना सुस्त रहा है कि 28 हजार करोड़ में से महज 6,700 करोड़ रुपये खर्च हुए ।

गंगा में गंदे पानी की मिलावट सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश में होती है. कुल गंदगी का लगभग तीन चौथाई हिस्सा इसी राज्य से गंगा में जाता है ।नमामि गंगे मिशन के शुरू होने के बाद यहां 33 सीवेज ट्रीटमेंट प्रोजेक्ट शुरू हुए, लेकिन इनमें से सिर्फ एक पूरा हो सका है । इस सरकार से पहले यानी कि 2015 में मिशन शुरू होने से पहले उत्तर प्रदेश में कुल 18 प्रोजेक्ट चल रहे थे, जिनमें से 13 पूरे हो चुके हैं । 

मीडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार, प्रस्तावित नए 151 घाटों के निर्माण में से महज 36 घाट ही अभी बनकर तैयार हुए है.  नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल' 2017 की रिपोर्ट के मुताबिक, अब तक 7304.64 करोड़ रुपये गंगा की सफाई में खर्च हो चुके हैं ।लेकिन, गंगा में ऑक्सीजन की मात्रा लगातार घट रही है ।गंगा में बैक्टीरिया की मात्रा 58 फीसदी से अधिक हो गई है. 

कैग ने अपनी  रिपोर्ट बनाने  के लिए नमामि गंगे योजना के अंतर्गत चल रहे कार्यों में से 87 की पड़ताल की थी ।  इनमें से 73 योजनाओं पर काम अभी भी काम चल रहा है । महज 13 काम ही  अभी तक  पूरे हुए हैं । बचा हुआ एक कार्य  अभी  शुरू भी नहीं हुआ है. जबकि इस दौरान कुल 7999.34 करोड़ रुपये आवंटित किए जा चुके है और  आवंटित कुल बजट में से महज 2615.17 करोड़ रुपये ही खर्च हुए हैं ।

मार्च, 2017 तक 'नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा' के  तत्वाधान में सितंबर 2016 तक सीवेज व्यवस्था को ठीक करने की तारीख तय की गई थी । लेकिन यह काम आज तक  नहीं पूरा हो पाया है ।  नवंबर 2018 तक 19,772 करोड़ रुपये की लागत से सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की 131 परियोजनाओं (105 गंगा पर और 26 सहायक नदियों पर) को मंज़ूरी दी गई थी, जिसमें से अभी तक 31 परियोजनाएं ही पूरी हो पाई हैं. 

सरकार ने इस योजना के लिए 20,000 करोड़ रुपये का बजट निश्चित किया  था । उमा भारती ने कहा था कि अगर 2018 तक यह काम पूरा नहीं होता तो प्राणदान कर देंगी । नरेंद्र मोदी ने इस योजना की समयसीमा 5 साल तय की थी ।  हालंकि केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने पिछले साल यह समयसीमा बढ़ाकर 2020 कर दी है । उन्होंने  दावा किया है कि 2020 तक गंगा की सफाई का 70 से 80 फीसदी काम पूरा हो जाएगा ।


राष्ट्रीय गंगा परिषद की एक भी बैठक नहीं हुई 


गंगा सफाई की दिशा में हो रहे कामों की  निगरानी के लिए राष्ट्रीय गंगा परिषद इस वक़्त सबसे बड़ी समिति है । राष्ट्रीय गंगा परिषद का  ‘गठन राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण’ (एनजीआरबीए) को  हटा कर किया गया था । हालाँकि दोनों के काम करने का तरीक़ा एक सा है ।  फ़र्क़ यही है कि  एनजीआरबीए का गठन 2009 में कांग्रेस ने किया था और इसकी पहली बैठक मनमोहन सिंह की अध्यक्षता पांच अक्टूबर 2009 में  हुई थी । 
8 जनवरी 2019 को एक  आरटीआई के ज़रिये पता चला कि गंगा की सफाई के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय गंगा परिषद   की आज तक एक भी बैठक नहीं हुई ।  जबाकि नियम के मुताबिक़  परिषद की साल में एक बैठक ज़रूर होनी चाहिए । 2016 में गठित राष्ट्रीय गंगा परिषद का उद्देश्य गंगा नदी का संरक्षण, सुरक्षा और उसका प्रबंधन करना है । दो साल  होने के बावजूद  इस परिषद की एक भी  बैठक नहीं होना गंगा नदी को ले कर  सरकार की गम्भीरता पर शक पैदा करता है । गंगा सफाई की दिशा में काम करने वाले पर्यावरणविद् रवि चोपड़ा कहते हैं  कि इससे पता चलता है कि प्रधानमंत्री गंगा नदी को कितना महत्व देते हैं।


1- कैग की रिपोर्ट 


दिसम्बर 2017  में आई कैग की रिपोर्ट में  नमामि गंगे योजना में पिछले तीन साल के दौरान हुए वित्तीय प्रबंधन, योजना से जुड़े काम -काज  में खामियों को लेकर सवाल उठाए गए  ।  संसद में पेश की गई  ऑडिट रिपोर्ट के अनुसार  स्वच्छ गंगा कोष में पड़ी करोड़ों रुपये की राशि इस्तेमाल नहीं होने की बात सामने आई  । रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (एनएमसीजी) के पास क्रमश: 2,133.68 करोड़ रुपये, 422.13 करोड़ रुपये तथा 59.28 करोड़ रुपये का उपयोग नहीं हो पाया है । स्वच्छ गंगा कोष के पास 31 मार्च, 2017 तक 198.14 करोड़ रुपये का कोष था, जिसका इस्तेमाल एनएमसीजी द्वारा नहीं किया जा सका और पूरी राशि बेकार पड़ी रही । रिपोर्ट में प्रदूषण में कटौती के मोर्चे पर भी कामकाज में खामियों का उल्लेख भी  किया गया था .

2- एक ग़ैर सरकारी संस्था की रिपोर्ट - 


मार्च 2019  में टाइम्स ऑफ़ इंडिया के मुताबिक, वाराणसी स्थित एक गैर सरकारी संस्था संकट मोचन फाउंडेशन (एसएमएफ) ने अपनी एक रिपोर्ट में एक चौंका देने वाला ख़ुलासा किया । रिपोर्ट के मुताबिक़ गंगा को अविरल और निर्मल करने के लिए केंद्र सरकार की 20,000 करोड़ रुपये की नमामि गंगे परियोजना के बावजूद गंगा में प्रदूषण का स्तर लगातार बढ़ रहा है । एसएमफ द्वारा इकट्ठा किए गए आकंड़ों के विश्लेषण से गंगा के पानी में कॉलीफॉर्म और बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) में बढ़ोतरी का पता चला ।  पानी की गुणवत्ता को मापने के लिए इन मापकों का इस्तेमाल किया जाता है । यह संस्था 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा लॉन्च किए गए गंगा एक्शन प्लान के बाद से गंगा के पानी की गुणवत्ता पर नज़र रख रही है । इसके अलावा संस्था के पास  नियमित तौर पर गंगा के पानी के नमूनों की जांच के लिए अपनी ख़ुद की प्रयोगशाला भी है ।

3- सीपीसीबी की रिपोर्ट -


सीपीसीबी ने उत्तराखंड में गंगोत्री से हरिद्वार के बीच 294 किलोमीटर लंबी गंगा में 11 जगहों से गंगाजल के नमूने जांच के लिए थे. सीपीसीबी की जांच में पता चला कि हरिद्वार के आसपास गंगाजल में बीओडी, कोलिफॉर्म और दूसरे जहरीले पदार्थों की मात्रा काफी अधिक है. कुछ ऐसा ही हाल काशी का भी है. विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश की 12 फीसदी बीमारियों की वजह प्रदूषित गंगा जल है.

दिसम्बर 2018 में आई केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की रिपोर्ट के अनुसार जिन 39 स्थानों से होकर गंगा नदी गुजरती है उनमें से सिर्फ एक स्थान पर इस साल मानसून के बाद गंगा का पानी साफ था. ‘गंगा नदी जैविक जल गुणवत्ता आकलन (2017-18)’ की रिपोर्ट के अनुसार गंगा बहाव वाले 41 स्थानों में से करीब 37 पर इस वर्ष मानसून से पहले जल प्रदूषण मध्यम से गंभीर श्रेणी में रहा ।  सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन करते हुए सीपीसीबी ने दिसम्बर में यह रिपोर्ट जारी की थी ।

4- आरटीआई  से ख़ुलासा -  


द वायर को सूचना का अधिकार के तहत मिली जानकारी के मुताबिक पहले की तुलना में किसी भी जगह पर गंगा साफ नहीं हुई है, बल्कि साल 2013 के मुकाबले गंगा नदी कई सारी जगहों पर और ज्यादा दूषित हो गई हैं. 2014 से लेकर जून 2018 तक में गंगा सफाई के लिए 5,523 करोड़ रुपये जारी किए गए, जिसमें से 3,867 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं.

नमामि गंगे योजना क्यों नाकाम हो रही है - 


किसी योजना की सफलता  बहुत कुछ परियोजना के निदेशक पर निर्भर करती  है, लेकिन इस योजना  के साथ सबसे बड़ी त्रासदी इसी पड़ाव  पर घटित हुई  है । नमामि परियोजना में बेहतर काम -काज के नाम पर  छह-छह निदेशक बदले गए हैं । जल संसाधन मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक़  इसका एक बड़ा कारण यह है  कि कोई भी निदेशक इस परियोजना से जुड़े सभी राज्यों को साथ ला पाने में सफल नहीं हो पा रहा था। इस वजह से  नमामि के निदेशकों को इस योजना के क्रियान्यवन में भारी परेशानी का सामना करना पड़ा । इसके अलावा बदले गए  निदेशक का मंत्री के साथ सामंजस्य नहीं बैठा। 

हिमालयन एनवायरमेंट स्टडीज एंड कनजरवेशन ऑर्गनाइजेशन के अनिल प्रकाश जोशी के अनुसार ‘निदेशकों से साथ समन्वय में नाकाम रहने का कारण केंद्र सरकार का रवैया जिम्मेदार है। केंद्र ने योजना ही ऐसी बनाई है जिसमें राज्यों की भागीदारी को न्यूनतम कर दिया। ऐसे में राज्य सरकार से सक्रिय सहयोग की उम्मीद कैसे की जा सकती है। नमामि गंगे योजना की सफलता पांच राज्यों के समन्वय पर टिकी हुई है। लेकिन जब से यह योजना शुरू हुई तब से राज्य व केंद्र सरकार के बीच लगातार गतिरोध बना रहा। ‘द हिंदू’ की एक रिपोर्ट में गंगा सफाई के लिए राष्ट्रीय अभियान के महानिदेशक राजीव रंजन मिश्रा ढीले काम की  वजह काम के लिए आजादी ना मिलना बता रहे हैं. 

तीसरा , इस योजना को ले कर तीन तरह की गतिविधियों को तो बता दिया गया है पर उसे लागू करने का कोई रोडमैप नहीं है । सरकार , मंत्री और निदेशकों के बीच बढ़िया तालमेल और रणनीति का अभाव है । मसलन केंद्रीय जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मंत्रालय की पूर्व मंत्री उमा भारती ने नमामि गंगे योजना के तहत घाट और श्मशान घाट बनाने के लिए ख़र्च की गई भारी धनराशि पर निराशा जताई थी । इसके बावजूद मोदी सरकार ने घाट एवं श्मशान घाट से संबंधित योजनाओं के लिए 966 करोड़ रुपये की धनराशि आवंटित की है ।  ये राशि शुरुआत में आवंटित की गई धनराशि से दोगुनी से भी ज़्यादा है । यह दिखाता है कि किस तरह मंत्रियों और आला कमान के बीच भी इस योजना के सिलसिले में बेहतर संचार का अभाव है । यही वजहें हैं जो इस योजना को ‘एक बीमार योजना’ के रूप में चित्रित कर रही हैं ।

हल क्या है ? 


राजीव गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक करोड़ों रुपये जरूर खर्च हुए, लेकिन गंगा के जल की निर्मलता को कोई बचा नहीं सका. बीजेपी अब तक राज्य में सपा सरकार पर साथ ना देने का आरोप लगाती रही, लेकिन अब राज्य में योगी सरकार आने के बाद उस पर गंगा सफाई के लिए दबाव और बढ़ने लगे हैं. 

‘नमामी गंगे’ योजना के अंतर्गत सरकार की पैसे ख़र्च करने की मंशा पर तो शक नहीं किया जा सकता ,लेकिन योजना को ज़मीन पर लागू करने में हर स्तर पर लापरवाही बरती जा रही है । फ़ंड होने के बावजूद उसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है । चल रहे कामों की कोई कठोर डेडलाइन नहीं है ,जिस वजह से बड़े प्रोजेक्ट  पूरे होने में  लगातार देरी हो रही हैं । सरकार की तरफ़ से इस मसले पर जिस तरह की कार्रवाई की उम्मीद थी , वह मुमकिन नहीं हो सकी है । 

चर्चित पर्यावरणविद प्रोफेसर जी.डी. अग्रवाल की इसी मुद्दे पर  अनशन के बाद  मौत हो चुकी है ।उन्होंने सरकार को गंगा के बिगड़ते हालातों को ले कर तीन -तीन पत्र लिखे थे लेकिन सरकार ने ध्यान नहीं दिया । एक नागरिक के तौर पर हमारी दोतरफ़ा ज़िम्मेदारी है । पहली , कि हम अपनी सरकार पर इस बात का दबाव डालें कि वह एक सार्थक मंशा से लायी गयी योजना को बीमार होने से बचाए । दूसरी, जागरूकता बढ़ाने की हमारी अपनी जिम्मेदारियाँ है ,जिससे कचरा , मल ,भौतिक अवशिष्ट और शव का बेहतर निपटान किया जा  सके ।  एक नदी अपने साथ एक पूरी की पूरी संस्कृति को ले कर चलती है । हमारा कर्तव्य है कि हम एक नागरिक की हैसियत से अपनी  सदियों  पुरानी संस्कृति की रक्षा करें ।

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