गांधी और अम्बेडकर : 'एक मंझा हुआ राजनेता' और 'एक सरल पराजित डॉक्टर'

इतिहास को ले कर हमारी दिलचस्पियाँ बहुत पक्षपाती रहीं । हमारे घरों ने जिस तरह हमें गांधी से मिलाया उतनी ही कोशिश से शायद अम्बेडकर को नज़रंदाज़ किया । सवर्ण घरों में के बच्चे अम्बेडकर को 'एक जाति' का आइकन मान कर बढ़े हुए। इन्ही घरों में गांधी को एक राजनीतिज्ञ से कहीं ज़्यादा महत्मा का दर्जा दिया गया,उनकी बातों के तमाम अर्थ समझाए गए।
उस दौर में जब साम्प्रदायिक उन्मादियों ने चौतरफ़ा क़ब्ज़ा कर रखा है, यह समय गांधी और अम्बेडकर की तुलना का नही है। न ही मेरी यह कोशिश है। लेकिन एक सवाल जो बार -बार कचोटता है कि क्या अम्बेडकर इस क़ाबिल भी नही थे कि उन्हें हमारे बचपन में हमें उसी तरह रूबरू कराया जाता, जिस तरह गांधी से कराया गया है। दरअसल इतिहास इससे बिलकुल अलग बात कहता है। गांधी के समय में यदि उनका कोई सबसे प्रखर आलोचक था,तो वो अम्बेडकर थे जिन्होंने मूक नायक,प्रबुद्ध भारत जैसे पत्र प्रकाशित किए । अम्बेडकर उस दौर में न सिर्फ़ गांधी के क्रियाकलापों की समीक्षा कर रहे थे बल्कि वह उस थ्योरी का दूसरा पक्ष भी रख रहे थे,जो गांधी ने अपनी किताब हिंद स्वराज में उद्घाटित की है।
इत्तिहास के इस अन्याय को एक उदाहरण के तौर पर समझिए। हमने भारत में नवजागरण को पढ़ते हुए उन आंदोलनों के बारे में भी पढ़ा है जो हिंदू समाज के सुधार के लिए चलाए गए। हमने दयानंद सरस्वती के आर्य समाज के बारे में पढ़ा, हम ने १८२८ के ब्रम्ह समाज के बारे में पढ़ा। हम थियोसोफ़िकल सोसायटी और विवेकानंद के राम कृष्ण मिशन से भी परिचित हुए । अम्बेडकर ने जो काम दलित समाज के उत्थान के लिए किया, चाहे वह पहले गोलमेज सम्मेलन में अपने समाज की समस्या का प्रतिनिध बनना हो, दलितों के राजनीतिक अधिकारों की माँग हो, अस्प्र्श्य्ता मिटाने की उनकी अनगिनत कोशिशें हों या फिर दो -दो पार्टियाँ बना कर भारत की तब की राजनीति में एक दलित दख़ल की आज़माइश हो, ....क्या ये सब हिंदू समाज के सुधार के लिए नही किया गया। क्या अम्बेडकर का पूरा जीवन हिंदू समाज का बड़ा सुधार आंदोलन नही है जिसने एक शोषण पर सदियों से मौन रहे समाज के लिए सोचने के दरवाज़े खोले।
गांधी और अम्बेडकर में कोई देवता नही है। दोनो ही विचारों की अपनी अपनी सीमाएँ है। गांधी ने जहाँ आधुनिकता, मशीन, वक़ील, रेलगाड़ी, डाक्टर, वक़ील इत्यादि पेशों से इतनी घिन कर ली कि उन्होंने एक ऐसा माडल की कल्पना की जो सुनने में तो सुंदर लगता है लेकिन उस दौर में भयावह हो जाता। भारत के गाँव अभी तक जातिवाद की गंद से उबर नही पाए हैं और वहीं गांधी के राज्य के माडल की कोशिका हैं, जिसके केंद्र में एक व्यक्ति निर्मल आत्म है। यहाँ गांधी शायद उन ख़तरों को समझ सके जो आधुनिकता और अत्याधुनिक मशीनीकरण के इस युग में अब हम समझ रहे हैं लेकिन गांधी ने जो विकल्प दिया उस पर तमाम सवाल उठे और उठते रहे हैं। सबसे सटीक सवाल अम्बेडकर ने उठाया।'जाती के विनाश' किताब में उन्होंने गांधी के इस विचार का बेहतरीन पोस्टमार्टम किया है। उस दौर में गाँवों के देखे हुए माडल के आधार पर यह सोचना बुद्धिमानी नही है कि इनको केंद्र मान कर गढ़े गए छोटे -छोटे राज्य शासन का आदर्श नमूना होंगे। लेकिन यहाँ अम्बेडकर शायद उन ख़तरों को भाँपने से चूक गए जो आज के दौर में बड़ी पूँजी, अत्यधिक शहरीकरण के दानवी माडल ने हमारे सामने पेश कर दिए हैं। आज का सबसे बड़ा संकट पर्यावरण का संकट है। गांधी की समझ इस समस्या के प्रति दूरदर्शी और सामवेदनशील दिखी लेकिन कमोबेश वह कोई कामगार वैकल्पिक माडल न दे सके।
इतिहास ने गांधी और अम्बेडकर के विवादों को अलग -अलग तरह से याद किया। सबसे चर्चित रहा पूना पैक्ट । अम्बेडकर समझते थे कि दलितों में बिना राजनीतिक प्रतिनिधित्व में नवजागरण असंभव है और वह तभी सम्भव होगा जब अलग निर्वाचिकाएँ हों। उन्होंने यह बात दोनो गोलमेज़ सम्मेलनों में उठायी। अंग्रेज़ और कांग्रेस तब तक मुस्लिम और सिखों की अलग निर्वाचिकाओं को ले कर राज़ी हो चुके थे लेकिन वह अम्बेडकर के साथ नही थे। अम्बेडकर के कई प्रयासों के बाद आख़िरकार ब्रिटिश संसद की पंचाट भारत में दलितों के लिए २० सालों तक अलग निर्वाचिका देने के लिए सहमत हो गयी । गांधी तब यरवाद जेल में थे। उन्होंने इसके विरोध में आमरण अनशन शुरू कर दिया। दलित राजनीति की भाषा में यह इतिहास का सबसे क्रूर और घटिया ब्लैक मेल था जो एक दमित समुदाय के अधिकारो के ख़िलाफ़ लिया गया. आख़िरकार अम्बेडकर को झुकना पड़ा। वह नही चाहते थे की गांधी के मौत के बाद उनके समुदाय को सदियों तक 'एक महत्मा की मौत' से कलंकित रहना पड़े। वह गांधी से यरवाद जेल में मिले और पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर किए। हैरानी की बात यह है कि इस समझौते पर गांधी ने ख़ुद हस्ताक्षर नही किए थे बल्कि गांधी की तरफ़ से उद्योगपति और गांधी के आर्थिक प्रयोजक जीडी बिडला, हिंदू महा सभा के वीर सावरकर, मदन मोहन मालवीय थे। एक और बात ताज्जुब की है कि गांधी से दूसरे गोलमेज़ सम्मेलन में जहाँ अम्बेडकर को अछूतों का प्रतिनिधि मानने से इंकार कर दिया था वहीं पूना पैक्ट के समय उन्होंने उन्हें दलितों के प्रतिनिधि के तौर पर स्वीकार किया।

अम्बेडकर के विपरीत गांधी के साथ इतिहास ने पूरा न्याय किया। उनके साम्राज्यवाद विरोधी क़दमों ने और एक करिश्माई राजनेता की क़ाबिलियत ने उन्हें जननायक बना दिया। उनके जीवन का विवादित हिस्सा हम नही जानते। हम नही जानते कि दक्षिण अफ़्रीका में बोआर युद्ध और जुलू लोगों के विद्रोह के समय गांधी अंग्रेज़ों के साथ रहे। हम नही जानते कि दक्षिण अफ़्रीका में गांधी काले अफ़्रीकियों के आंदोलन में हिस्सा लेने की बजाय इस बात को ले कर मैदान में डटे रहे कि अफ़्रीका के इन 'असभ्य गँवारो' की तरह यहाँ आए बनिया भारतियों को न ट्रीट किया जाए। हम यह भी नही जानते कि साम्राज्यवाद और व्यक्ति की आज़ादी को ले कर इतने मुखर गांधी भारत की अछूत और बँघी आबादी को ले कर क्या विचार रखे थे।

बढ़िया बात यह है कि गांधी ने कभी सही होने का दावा नही किया। उन्होंने अपने जीवन को एक चलता फिरता दर्शन बनाया। उन्होंने हर क्षण के अपने सत्य बनाए और अपनी ही पुरानी बातों को चुनौती देते रहे। वह अंग्रेज़ों के साथ भी रहे और ख़िलाफ़ भी रहे। वह एक ज़बरदस्त राजनेता थे। उन्मे गोलबंदी की जादुई शक्ति थी। उन्होंने अपने जीवन में लगभग हर विषय पर हर तरह के विचार रखे। इसलिए आज भारत के सेकूलर राष्ट्र्वादियों और उन्मादी दलों, दोनो को गांधी से कोई बैर नही है। जिस तरह गांधी तमाम आलोचनाओं के बावजूद साम्राज्यवाद की अपनी लड़ाई और हिंदू -मुस्लिम समस्या को ले कर ईमानदार रहे उसी तरह अम्बेडकर भी अंत -अंत तक हाशिए के समुदायों अछूतों, हिंदू औरतों, दलितों के लिए खड़े रहे। दोनो ही महान व्यक्तित्व थे। अफ़सोस कि हमें गांधी को डीटेल में जिस तरह पढ़ाया गया ,अम्बेडकर को नही।

आशुतोष तिवारी 
(दिहांडी मज़दूर)



टिप्पणियाँ