भाषा के साथ सबसे बड़ा फ्रॉड क्या हुआ है?

राजनीतिक में अगर हम नैतिकता को किनारे रख दें तो इस सदी की सबसे बड़ी गिरावट आदमी की भाषा में दर्ज हुई है। इसका मतलब यह नही है कि तकनीकी तौर पर भाषा का विकास नही हुआ या फिर दूसरी तमाम भाषाओं के एक साथ  मिलने से यह अंतरंग तौर पर दूषित हुई है। मुझे यह दोनों बातें पिछली सदी से इस सदी के दूसरे दशक में बेहतर जान पड़ती है। असल सवाल भाषा के साथ फ्रॉड का है। भाषा मे हुए फ्रॉड ने हमे यानी 'लघु मानव' को सबसे ज्यादा ठगा है। कैसे?

बोलने की कला का भाषा के साथ वही रिश्ता है जो यूरोप के रैनसा का कम्पास, दूरबीन और चिमनियों से रहा था।इटली का शातिर दार्शनिक  मैकियावेली हमेशा इस बात पर जोर देता था कि नेता हमेशा लोगों के साथ उनके जैसा दिखने की धूर्तता करे। यही धूर्तता उसकी जगह को चिर बनाये रखने में सहायक होगी। जनता के साथ दिखने का एक तरीका यह भी है कि उसकी भाषा मे निपुणता हासिल कर ली जाए। उनके बीच की भाषा मे यदि रुदन,उद्घोष, ललकार, फटकार, मुहावरे, मजाक , कहावतों के साथ उसे ठगा भी जाएगा तो वह आनंदित रहेगी। 

बुनियादी तौर पर भाषा का सीधा सम्बंध सम्वेदना से है ।अगर शातिराना सावधानी न बरती जाए तो आपकी जुबान से बड़ी सहजता से उन्ही शब्दों की निकासी होगी जिनका भुगतान आप सचमुच करना चाहते हैं। सहज रूप से बात करें तो आदमी के स्नायु में सम्वेदना पहले जन्म लेती है शब्द बाद में। हम कह सकते हैं कि सम्वेदना शब्द की वाहक है।  लेकिन अब भारत से लेकर अमेरिका की राजनीति ने कुछ ऐसे शातिर वागवीरों को जन्म दिया है जिनकी सफलता की एक बड़ी वजह उनकी बोलने की कुशलता है ।उनकी भाषा में एक ऐसा नाटकीय तिलिस्म है जिसमे शब्द और सम्वेदना का वह तार कटा हुआ है जिसकी बात मैंने ऊपर की है यानी सम्वेदना शब्द की वाहक नही है बल्कि शब्दों का कौशल एक शख्स की समूची महत्वाकांछा का वाहक है। 

यही है भाषा के साथ फ्रॉड , जिसने इस वक्त अमेरिका, ब्रिटेन , इजराइल से ले कर तीसरी दुनिया के देशों को अपने शिकंजे में कसा हुआ है। भाव भंगिमाएं या चेहरे की बनावट और आवाज का उतार चढ़ाव इस फ्रॉड में सबसे बड़े सहायक तत्व है। कैसी गजब बात है, हम आनन्दित भी हैं कि ' वाह! फला क्या बोलता है' और ठगे भी जा रहे  हैं । 

भाषा के साथ दूसरा फ्रॉड कहाँ हुआ है? देखिए, भाषा का अपना एक अंदरूनी गुण है -  हर शब्द की अपनी तमाम अर्थ छायाएं होती हैं। भाषा के इस कौशल का ईमानदारी से रचनात्मक प्रयोग हमारे अभिव्यक्त कौशल को न सिर्फ सतरंगी बना सकता है बल्कि यह हमारी बोल चाल की सभ्यता में हास्य भी ला सकता है। भाषा की यह खासियत  बहुत ही रचनात्मक ईष्ट की ओर इशारा करती है। लेकिन शब्दों के शातिर जानकारों ने क्या किया है।  उन्होंने इसे ऐसे द्विअर्थी सम्वादों के लिए इस्तेमाल किया है जिससे उनका घमंड , ताकत और खौफ बगैर हथियारों के दिखाया जा सके। हमने इसे राजनीति के अंतरराष्ट्रीय फलक पर एक बड़ा नाम भी दिया है- ' कूटनीतिक भाषा' । सब जानते है कि यह भाषा क्या है । अपने हितों की रक्षा के किये भाषा को हथियारों की तरह इस्तेमाल करना। भाषा को बारूद की तरह इस्तेमाल करना इसके साथ दूसरा सबसे बड़ा फ्रॉड है।

 इस फ्रॉड के प्रतिनिधि के तौर पर आप भारत के तमाम साम्प्रदायिक टीवी एंकरों , दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी, नेताओ को देख सकते हैं।  उनके संस्कार और स्वप्न राष्ट्र का विचार अंदर से भले ही बड़ा हिंसक , विषैला या उन्मादी है लेकिन सिर्फ शब्दो की कुशलता और उनके चालाकी भरे दोहरे इस्तेमाल की वजह से वह सभ्य समाज मे बैठ कर देखे जाने का सुख हासिल कर चुके है ।इस फ्रॉड से हम ठगे भी जा रहे आनंदित भी है की ' फला एंकर कैसे बजाता है'

भाषा के साथ फ़्रॉड कैसे न हो। यह पैराग्राफ  उनके लिए है, जो मनुष्य सभ्य है , लोकमंगल चाहते हैं, पर जिनका भाषा के साथ सम्बंध अभी वयस्क नही हुआ है और वह गलती से भाषा कौशल के उपहार का गलत इस्तेमाल कर बैठते हैं। मेरी एक भली दोस्त  एक दो दफा ऐसी बात कह जाती है जो वो कहना नही चाहती । इसका एक इलाज है और वो है शब्द को बोलने से पहले की बिम्ब भाषा। दरअसल शब्द एक प्रतीक हैं ,उन वायवीय विचारों का जो हमारे मस्तिष्क के स्नायु को टच करते हैं। जैसे ही कोई विचार हमारे सम्वेदन को स्पर्श करता है , हम उसके लिए शब्द चुनते है । सम्वेदन के स्पर्श और शब्द के निर्माण के बीच एक प्रक्रिया है विचारों के बिम्ब निर्माण की, जिसे हम कई दफा चित्र भाषा ही कहते है। यह प्रक्रिया जितनी सावधान और गहरी होगी भाषा के साथ फ़्रॉड की गुंजाइश उतनी ही कम होगी। 

जब भी कोई विचार आये तो जरूरी है कि सावधान सह्रदय पहले उसका एक बिम्ब चित्र बनाये, यह बिम्ब  पूर्ण या आपके विचारों का बिल्कुल सटीक सिनेमेटिक रूपांतरण होना चाहिए , इसमें समय लिया जा सकता है पर जब तक सटीक बिम्ब न बने तब तक बोलने से बचा जा सकता है। रुक रुक कर बोला जा सकता है। मौन रहा जा सकता है। बिम्ब जब पूरी तरह बन जाये तो उसे शब्द दिए जा सकते है। बिम्ब बनना आपका भाषाई कौशल नही है, मुक बधिर भी इसने माहिर हो सकता है   बिम्ब निर्माण एक संवेदनशील- विश्लेषणात्मक प्रतिभा है जबकि भाषाई अभिव्यक्ति शाब्दिक कुशलता। दोनो के इस्तेमाल में यदि आपने सावधानी बरती तो न सिर्फ आप भाषा का फ्रॉड पकड़ सकते हैं बल्कि आप कभी यह कहने की जरूरत नही महसूस करेंगे 'कि मेरे कहने का ये मतलब नही था'

आशुतोष तिवारी



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