गंध और स्मृति। आदमी अपने बीहड़ में निपट अकेला रह कर भी इन से दूर नही रह सकता । बल्कि देखें तो गंध औऱ स्मृति का अकेलेपन से बड़ा गहरा रिश्ता है। यह रिश्ता बढ़ते मध्यवर्गीय हाहाकार के बाद और गहरा होता जा रहा है। स्मृति मनुष्य के स्नायुओं की तिजोरी का सबसे कीमती धन है। कई दफा तो लगता है , जिसे हम वक्त बीतना कहते हैं वह कुछ और नही बल्कि अपनी स्मृतियों को बासी करना है। समय के साथ आदमी की जिंदगी में एक ऐसा मोड़ जरूर आता है जब उसे सिर्फ स्मृतियों के साथ रोना-हंसना और जीना पड़ता है। गंध और स्मृति का रिश्ता तो और भी अटूट है। आइए देखें, कैसे गंध आदमी की कुम्हलाई स्मृति को महका देती है।
गांव से बाहर पढ़ने गयक लड़का अपने अंचल को अपने साथ ले शहर ले जाता है। उसका अंचल सिर्फ उसकी ज्ञान दशा में नही है बल्कि वह अपनी नाक से अपने अंचल की समूची जीवटता को भर कर ले गया है। गाहे बगाहे यह जीवित हो जाती है। जैसे अमेरिका में बसा हुआ कोई आंचलिक भारतीय लीपे हुए चौके की खुशबू महसूस करे। उस लीपे हुए चौके में गरमाये गए दूध की महक - या फिर गोबर के घूर पर बारिश के बाद की गंध , कच्ची अमिया के ऊपर लगे चोंप कि महक या फिर प्रेमिका के जिस्म का पसीना, जो उसकी पीठ चूमते हुए नाक तक चला आया था। इन गंध में हमारा जीवन प्यार और अंचल सब कुछ संकलित है और इसकी ताकत इतनी है कि आप इसे पढ़ते हुए भी अपने भीतर के स्मृति अंचल को जीवित कर चुके हैं।
इंसान के जीवन से पैदा हुई गंध किसी भी तरह की परफ्यूम से बढ़ कर है। क्या किसी भी परफ्यूम की इतनी हैसियत है कि वह सिर्फ अपनी महक के सहारे न सिर्फ आपकी स्मृति को जगा दे बल्कि उसे चलना फिरना और बोलना भी सिखा दे। स्मृतियां गन्ध के सहारे इंसानों से बात करती हैं।
गंध के गहन स्मृति बनने की प्रक्रिया से एक कदम पहले की प्रक्रिया दूसरी है। वह है आदमी का 'वहां होना, जहां वह है' ।शायद इसीलिए शहर में स्मृतियां ज्यादा नही बनती । क्यों हमे स्मृतियो को कुरेदने के लिए अंचल तक जाना होता है। कार से उतर कर हम मिट्टी पर आते है और अपने किसी अपने को बताते है कि यही वह आम का पेड़ है जिसके नीचे मैं खेला करता था। ये मिट्टी का घर जो टूटा हुआ, बारिश में हल्का बहा हुआ सा है , हम बाबा के साथ 12 साल तक यहां रहे थे।वो कैथे का पेड़ है, बड़े खट्टे होते थे और एकदफ़ा तो मैं गिरा भी था।
मुझे लगता है स्मृति संग्रह को ले कर नाक को अंडर रेट किया है जबकि आंखों को ओवर रेट किया गया है। मेरा अनुभव है कि जिस्म और घ्राण शक्तियां स्मृतियां सहेजने की सबसे कीमती इन्द्रिय है। इसलिए हर कोई उन्हें अतिरिक्त रूप से सक्रिय रखे। इनके जरिए बनी स्मृतियां न सिर्फ टिकाऊ होगी बल्कि सांस भी लेती रहेंगी। अपनी स्मृतियों को सहेजने को ले कर सजग हो जाओ दोस्त । जीवन का सूरज जब ढलान पर होगा, यही काम आएंगी।
आशुतोष तिवारी
(मेरे शब्द मर चुके है सिर्फ वह सम्वेदन जीवित है और बस चित्र भाषा मेरे सम्वाद का आखिरी जरिया बचा है।)
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