पँचायत : एक कलात्मक चूक , जो गांधी के ग्राम -चिंतन में मौजूद है।

पँचायत सिरीज आये हुए समय हो चुका और यह लिखने में देर हो गई है। सीरीज ने जिस तरह सराहना पाई है , देर-सबेर ही सही पर इस पर एक टिप्पणी  करने के मोह से बचना मुमकिन न हुआ।शिल्प से ज्यादा कंटेंट पर बात करना मुझे जरूरी लगा। यहां कहानी लिखने से बच रहा हूँ और मान कर चल रहा हूं कि आप इसे देख चुके हैं। 

पँचायत :एक ऐसी कलात्मक चूक, जो गांधी के ग्राम चिंतन में मौजूद है।


'पँचायत ' का कथा -क्षेत्र  फुलेरा गांव हैं । वैसे तो फुलेरा राजस्थान के जयपुर की एक नगरपालिका है लेकिन सीरीज में यह चित्रित गांव का नाम है।   मध्यवर्गीय आशाओं के साथ शहर में पले- बढ़े अभिषेक को उसकी 'नामुराद किस्मत' ने फुलेरा ला कर पटक दिया है। उसकी शहरीय भित्ति फुलेरा की कथित आंचलिकता से टकरा कर न टूटते बनती है न नव निर्मित होती है। सहायक विकास और प्रधान के साथ उसके जीवन की यात्रा आठ एपिसोड में बंटी हुई है जिसे उसने खुशी-खुशी नही चुना है। जब सारी सीरीज की यूएसपी का आधार ही गांव है  तो इस सिरीज की आलोचना में यह सवाल जरूरी है की क्या जितेंद्र कुमार फुलेरा के रूप में सचमुच एक भारतीय गांव तक पहुंचने- पहुंचाने में सफल हुए  है ?

बेहतर कला वही है जो अपने समूचे यथार्थ के साथ पेश हो। और समूचा यथार्थ अंतर्विरोधों को देखे- समझे बगैर अधूरा है। यही पर पँचायत के निर्देशक से चूक हुई है। पँचायत में गांव तो है पर यह एक मनो रंजक इरादे से बुनी गईं फैन्टेसी के गर्भ से निकला आधा-अधूरा गांव है जो सिर्फ  प्रधान ब्रज भूषण पांडे, प्रह्लाद पांडे, नीना देवी और एक बाहरी शहरी ब्राम्हण अभिषेक त्रिपाठी के जीवन की कथा- व्यथा को डिजिटल दर्शकों (जिनमे से अधिकतर आर्थिक रूप से मध्य वर्गीय और जातीय रुप से शुरुआती पायदान पर हैं।) के मन का रंजन करने के लिए गढा गया है। 

यह बात सामान्य समझ से परे है कि पांच घण्टे स्क्रीन पर आपको एक गांव दिखाया जाए और उसमें गांव की सतह पर स्थित सहज रूप से व्याप्त 'जाति' एलिमेंट से आपके कथानक का साक्षात्कार न हो। यदि सीरीज ने अपने कथानक में गांव तक पहुंच बनाने के लिए अंधविश्वास और गंवई शादियों के प्रसंग का तानाबाना बुना है तो क्या जातिगत प्रसंग (जिसे व्यंग्यात्मक तौर पर पेश किया जा सकता था और विद्रूप बना कर सहज-सम्वेदना निर्मित की जा सकती थी) से जानबूझ कर बचा गया है। इन्ही अर्थों में वह समीक्षाएं असफल है जिन्होंने पँचायत सीरीज को कम या ज्यादा राग-दरबारी मैला आँचल , प्रेमचंद के गांवों से जोड़ा है। रागदरबारी की तरह पँचायत में ग्रामीण विद्रूपता पर प्रहार नही बल्कि सतही कुलीन सम्पन्नों का जीवन -विनोद है। प्रेम चंद के बेलारी से तो यह कोसो दूर है क्योंकि इसमें धनिया ,होरी, मेहता की जगह ही नही है। मैला आँचल के पूर्णिया  की सांस्क्रतिक आंचलिकता की जो महक उपन्यास में व्याप्त है, वह बस इस सीरीज के शुरुआती इंट्रो में देखी जा सकती है और कहीं उसके लिए कथानक में स्पेस नही है। लगता है जैसे सीरीज सवर्ण के द्वारा सवर्ण किरदारों के इर्दगिर्द शहरी-ग्रामीण सवर्णों के लिए बनाई गई है।

तो क्या जानबूझ कर यह आधुरापन बरता गया है। इसके दो उत्तर हो सकते है। पहला  , तो निदेशक बहुत सटीक तरह से कह सकता है कि यह गांव में सम्पन्न सवर्ण परिवार, 'बेकिस्मती' से  गांव में टपक पड़े एक शहरी सवर्ण  के अन्तर्सम्बन्धों और उनके जीवन -विनोद की व्यथा -कथा है । निदेशक का उद्देश्य व्यापक ग्रामीण फलक को न छू कर बस उस गांव को उकेरना था जो आज उस परिवेश से अनजान शहरी नेटजनो के दिमाग मे एक सुखद-फैन्टेसी के रुप मे रचा- बसा है। इन्हें सिर्फ वह हिस्सा दिखाना ही दीगर है जिससे इनका मनोरन्जन हो सके। अगर यह बात है तो यह सीरीज एक बढ़िया और पूर्ण सीरीज है। लेकिन अगर ऐसा नही है तो निर्देशक से बड़ी चूक हुई है। एक ऐसी कलात्मक चूक , जो गांधी के ग्राम चिंतन में मौजूद है।

(नोट- यह सिर्फ एक टिप्पड़ी है। सिरीज के कई बेहतरीन पक्ष है, जिनके बारे में पर्याप्त लिखा- पढा जा चुका है)






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