पाताल लोक : क्या खास है ?

'पाताल लोक' भारत के सोशल ऑर्गेनिज्म (सामाजिक सावयविकता) का महाकाव्य है। इसका स्ट्रक्चर औऱ टेक्स्चर (बनावट और  बुनावट ) समकालीन सिनेमा से न सिर्फ उम्दा है बल्कि आईना है। अपने समय का यथार्थ इसकी पकड़ में है। जिस तरह  यथार्थ अपने समय के तमाम अंतर्विरोधों और चित्रित समाज के मिथक-संबंधो के बगैर अधूरा है उसी तरह कला का कोई भी फ़ॉर्म (रूप)  बगैर चतुरंगी दृष्टि के सम्पूर्ण नही है।  पाताल लोक में न सिर्फ  रामायण -विष्णु पुराण के पुराने भारतीय मिथक यथा-समय समावेशित हैं बल्कि धूल भरा , व्यंग्य विषय भारतीय सिस्टम , एंकर -दायित्व से एक्टर-बोध  की तरफ बढ़ती पत्रकारीय समझ, हाशिये पर खड़ा दलित, मुस्लिम, एलजीबीटी समुदाय, आधुनिक स्त्री-पुरुष सम्बंध और  तिकड़मी दस्यु-राजनीति आदि के आपसी अंतर्संबंधों से घिरे हमारे वर्तमान की नब्ज इसकी जद में है।

नौ एपिसोड में बंटी हुई इस सीरीज को देखने पर लगता है जैसे कई कहानियां एक साथ चल रही है । हमारे समय के कई यथार्थ एक साथ इस दृश्य -धारा में  बह रहे है। मसलन सिरीज की शुरुआत अगर एक पत्रकार पर हत्या के प्रयास से हो रही है तो क्लाइमेक्स उस पत्रकार का कथानक में अर्थहीन हो जाना है। सीरीज की थीम सतही पर मध्य-उत्तर भारत की अपराध कथा लगती है लेकिन इसमें न सिर्फ व्यवस्था का ओपेरा और मर्शिया  है बल्कि त्यागी, हाँथराम के बेटे और उसके दोस्तों की पृष्ठभूमि में बाल मनोविज्ञान , सभी स्त्री पात्रों की पृष्ठभूमि में आधुनिक पितृ सत्तात्मक समाज  में घरेलू- बाहरी औरतो की नियति, शहरी मेहरा और लोकल अमितोष के तौर पर पत्रकारीय समाज का सत्य,  बहुजनवादी रैलियों और नीले झंडे की वाजपेई राजनीति जैसी तमाम सह -कथाएं मजबूती से मूल कथा से चिपक कर चलती है। इसीलिए कहना बनता है कि न सिर्फ वस्तु (कंटेंट) सच्चाई के करीब है बल्कि फॉर्म (शिल्प) भी बहुत उम्दा है।

यहां किरदारों के चयन में बड़ी बारीक रचनाधर्मिता दीखती है। हर किरदार अपने आप मे आस-पड़ोस -अखबार की सुनी -देखी गई खबर का प्रतिनिधि लगता है। कबीर, जिसकी परवरिश एक मुस्लिम के तौर पर नही हुई , लेकिन उसका गुजरा हुआ भारत के उस मुसलमान की जिंदगी हो सकती है, जिसका पाला नब्बे के बाद से तेजी से साम्प्रदायिक होते जा रहे सिस्टम से पड़ रहा है । ऐसे ही सिस्टम में अंसारी आईपीएस बनने की तैयारी कर रहा है और यह करते हुऐ वह उन बातों से रोज दो-चार हो रहा है, जो हम अपर कास्ट हिंदू अपनी बातचीत में जुमलों के तौर पर आये दिन सुनते है, कहते है ।  दूसरा गिरफ्तार किया गया अपराधी पंजाबी लोवर कास्ट का प्रतिनिधि है। उसकी व्यथा - कथा उस आम दलित में देखी जा सकती है जिसके किस्से हम कई दफा अखबारों में पढ़ते है, बुजुर्गों से सुनते हैं। इन दोनों की तरह चीनी भी समाज के उस क्षोर की प्रतिनिधि बन कर मौजूद है, जो अलग लैंगिक मिजाज की होने की वजह से मुख्य धारा में हर दिन सताई जा रही है। चित्रकूट का एक त्यागी लड़का है जिसे एक खास परवरिश और दस्यु माहौल ने जानवर बना दिया है।सीरीज में किसी भी किरदार की  अदाकारी में अभिनेताओं ने गैर-ईमानदारी नही दिखाई है। जो जहाँ जैसा है वही पर जैसे होने के लिए चुना गया है  , चाहे वह हांफता,  बेचैन  पुलिस अधिकारी हांथीराम हो , कुंठित, मनो- विकृत हथौड़ा त्यागी हो ,स्टेशन के कीड़ों के बीच पली - बढ़ी  चीनी हो या फिर और सभी पात्र जो सीरीज के व्यापक फलक पर अलग-अलग भागों में  वितरित किये गए हैं।



निर्देशक व्यर्थ की क्रांतिकारिता से बचा रहा है।  यह तभी सम्भव हो सकता है जब आपका इरादा बस देखे गए को कलात्मक तरीके से दिखाना है। कहानी में दो जगह यह कोशिश सप्रमाण देखी जा सकती है। सिरीज की कोई भी स्त्री पात्र अंत अंत तक विद्रोह नही करती । अंततः पुरूष के साथ 'जितना मिले-जैसे मिले' में जी लेने में ही उसका अर्थ है। हर पात्र का एक मजबूत शिरा कथानक के पुरुष पात्र से जुड़ा हुआ है, चाहे  वह हांथी राम की पत्नी हो, मेहरा की बंगाली वाइफ हो, उसके ऑफिस की महिला मित्र हो, तीन लोगों की हमबिस्तर चँम्पा हो , सीबीआई की चीफ महिला हो, यह सभी कोई जरूरी विद्रोह न करते हुए ,बगैर स्पष्ट प्रभाव छोड़े अंत मे अपनी नियति जैसी है, वैसी स्वीकार करती हैं। यह इस सीरीज का एक आलोचनात्मक पहलू हो सकता है लेकिन क्या इन नायिकाओ का विद्रोही नही होना हमारे समाज के यथार्थ के करीब नही है। एक जगह बस मुझे यह जरा गैर-यथार्थ लगा की क्या गिरफ्तार हुए चार लोगों में से एक के मुसलमान होने पर CBI द्वारा इस्लामिक जिहाद की कहानी गढ़ना और सबका मान लेना हमारे अभी के ओपेन मीडिया समाज में इतनी सहजता से सम्भव है जैसा सीरीज में चित्रित है। चूंकि अंत तक सच्चाई पता लगने के बावजूद उस थ्योरी का खंडन नही है और अंतिम दृश्य भी सुनवाई का है, तो यह सवाल और मजबूत हो जाता है।

व्यर्थ की क्रांतिकारिता से बचने की दूसरी सफल कोशिश  सीरीज के क्लाइमेक्स में दिखी है। दरअसल यह क्लाइमेक्स मनोरंजक या इमोशनल सिनेमा दर्शकों को क्लाइमेक्स जैसा लगेगा भी नही। इसमें सच जान लेने के बाद भी , पूरी गुत्थी सुलझा लेने के बाद भी, दस्यु-राजनीति सम्बन्ध का सार निकाल सकने के बाद भी हांथी राम एक विजयी नायक बन कर नही उभरता, बस अपनी नौकरी बचा पाता है। दरअसल देखा जाए, तो यही हमारे समाज का सच है। आज के इस कलुष दौर में यदि ईमानदारी से काम करने वाला कोई शख्स अपनी नौकरी ही बचा ले, तो यही क्रांति है। समकालीन क्रांतिकारिता के इसी ट्रैजिक -निष्कर्ष को निर्देशक ने क्लाइमेक्स बनाया है।

यह सिरीज सही - सही निशाने पर लगनी कैसे सम्भव हो सकी। इसके लिए न सिर्फ  व्यापक सामाजिक-जीवन का अनुभव चाहिए साथ ही निर्माण की भाव उत्तेजना भी चाहिये जिसमे धैर्य की मिलावट हो। जब भी कोई कलाकार इस भाव उत्तेजना से खुद को भरा हुआ महसूस करता है कि उसको अपने इन व्यापक सामाजिक अनुभवों के आधार पर एक फ़िल्म बनानी है, तब पाताल लोक जैसी सीरीज बनती है। हालांकि इस भाव उत्तेजना के बाद की एक प्रक्रिया और है, जिस पर कला के उस फॉर्म की ( यहाँ सिनेमा समझना चाहिए)  सफलता निश्चित करती है। यह प्रक्रिया है उस व्यापक अनुभव- भाव बोध के जर्नलाइजेशन की , जिसे लेखक ने महसूस किया है। इस क्षण में निर्देशक  के सामने यह चुनौती होती है की उसकी अपनी अनुभव सम्पदा सिर्फ वैयक्तिक बन कर न रह जाये बल्कि उसे वह  इस तरह पर्दे पर उकेरने में सफल हो कि दर्शक की  सम्वेदना के ये सेम अनुभव, उसके दिल के स्थाई भाव सतह पर आ जाये, और दर्शक बोल उठे की 'यही सब तो आजकल हो रहा है, बिल्कुल सही दिखाया है' और जो शोषक है वह इसे देख कर थोड़ी सात्विक हीनता महसूस करे । मुक्तिबोध ने 'एक साहित्यिक की डायरी' में इसे कला का दूसरा क्षण कहा है और निर्देशक इस दूसरे क्षण के निर्वाह में बेहद सफल रहे हैं।



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