सुनीता श्री कांत की पत्नी है। हिंदी साहित्य की शुरुआती दुर्लभ नायिका, जिसे जैनेंद्र अपनी प्रयोगशाला में प्रयोग करने ले आए हैं। हरी प्रसन्न, श्री कांत का दोस्त है । क्रांतिकारी है। कामकुंठित है, जिसे जैनेंद्र ने बड़ी अदब से गढ़ा है। श्री कांत, सुनीता का पति है,ऐसा विचित्र पति,जो ख़ुद से प्यार करने वाली सुनीता को अपने देशभक्त दोस्त हरी प्रसन्न के साथ एकांत देने पर तुला रहता है। तीन चरित्र, बाक़ी कुछ सहायक चरित्र और जैनेंद्र मानसिक यथार्थ की परम्परा में प्रवेश करते हैं। सुनीता, जैनेंद्र के कुछ अन्य उपन्यासों की तरह नायिका प्रधान उपन्यास है। नायिका की प्रधानता सिर्फ़ इन अर्थों में, कि वह जानती है बलिदान क्या है। जैनेंद्र की नायिकाओं से थोड़ा अलग है सुनीता, वह खुल कर नही करती आत्मदमन, अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ रहे हरी प्रसन्न के साथ चली जाती है क्रांति कि प्रेरणा बनने और उतार देती है अपने कपड़े कि उसे भोग कर, कुंठा दूर कर , माँ भारती की सेवा में जुटे हरि प्रसन्न। लेकिन हरी प्रसन्न दूसरे जैनेंद्र हैं, मूँद लेते है आँखे और भाग जाते है अपनी कुंठाओं के साथ किसी दूसरे शहर। लौट आई है सुनीता, और लिपट जाती है श्री कांत से, कि ये क्या परीक्षा है स्वामी। अद्भुत है जैनेंद्र और अजीब है उनकी दृष्टि । आख़िर माजरा क्या है और जैनेद्र इस उपन्यास के ज़रिए कहना क्या चाहते हैं।
जब जैनेंद्र सुनीता लिख रहे हैं, चारों तरफ़ फ़्रायड के मनोविश्लेशन का बोलबाला है। वह चाहते हैं की ऐसी क़लम से उपन्यास लिखे, जिसकी निब गांधी और फ़्रायड के वैचारिक विलयन में डूबी हुई हो। इला जोशी की मशीनी नज़र से क़तई अलग लिख देते हैं ‘सुनीता’ । एक भारतीय परिवेश का प्रतीक- भारतीय नायिका और उसके पति का दोस्,त काम कुंठित,क्रांतिकारी हरी प्रसन्न।देशभक्त हरी प्रसन्न ने जब से सुनीता को देखा है,भीतर न जाने क्या -क्या होने लगा है। क्यों वह काम कुंठित है? क्यों एक क्रांतिकारी को ही काम कुंठित बनाते है जैनेद्र? दरसल जैनेंद्र फ़्रायड के एक सिद्धांत का स्थापन चाहते हैं। फ़्रायड के अनुसार मनुष्य के जीवन की समूची प्रेरक भावना काम भावना है। उसकी चेतना का सबसे बड़ी डिमांड है -‘सेक्स’। पूर्ति न होने पर व्यक्ति इसका दमन करता है और लगातार दमित भावना एक कुंठा बन जाती है और बस जाती है अवचेतने मन में। अवचेतन के पहरेदार उसे लॉक रखते है ताकि आदमी की सामाजिक मर्यादा बनी रहे। इस कुंठा से उबरने के लिए लोग इसी लगातार दमित काम भावना को उदात्त कर देते है और अपनी प्रेम करने की दमित असीम इक्षा को दिशा बदलकर उसे समाज प्रेम, राष्ट्र प्रेम और विश्व प्रेम में रूपांतरित कर देते हैं। इसलिए अविवाहित या तलाकशुदा या किसी नैतिक वजह से सेक्स का दमन कर रहा आदमी,देश, समाज के लिए कुछ विशिष्ट करना चाहता है। उसने सेक्स के व्यक्तिगत दमन को उदात्त बना दिया है पर इसमें ज़रा सी चूक हुई तो फिसलन भी सम्भव है ।और फिसलता है हरिप्रसन्न।
यही हरि प्रसन्न होने का दर्शन है। बचपन से वह क़िंही परिवेशगत नैतिक वजहों से काम शक्ति को दमित करता आया। उसने यथार्थ की बजाय आदर्श चुना। अंततः सेक्स के निरंतर अभावों में वह कुंठित हुआ लेकिन उसने रास्ता निकाला राष्ट्र से प्रेम का,और अपनी व्यक्तिगत भावना को उदात्त कर बैठा। उसे लगा अब सब सार्थक है, वह गुज़ार लेगा कुंठित जीवन, लेकिन जब सुनिता सी स्त्री सामने हो, तो भीतरी कुंठा, जो उदात्त हो गयी थी,उसमें भी विचलन सम्भव है। अवचेतन के दमित विचार कभी भी,चेतना के प्रवाह में आकर आदमी को दुविधाग्रस्त करते है, यही समस्या हरी प्रसन्न की है। वह सुनीता को पाना भी चाहता है,पर वह जानता है कि सुनीता उसके दोस्त की पत्नी है, उसकी भाभी है, वह प्रस्ताव देता है सुनीता को - दल की चीफ़ बनने का, पर है ये काम भाव ही, कि वह सुनीता के सान्निध्य में रहेगा। सुनीता की देह देखना चाहता है,लेकिन देख कर भाग जाता है। यह विचित्र मन है हरी प्रसन्न का। एक त्रासदी सी है, जो कई लोगों में घटित होती है। जैनेंद्र यह त्रासदी सफलता पूर्वक दिखाते है और हरी प्रसन्न शायद सबसे जीवित और यथार्थ सा चरित्र है इस उपन्यास का।
जहाँ तक सुनीता की बात है, वह जैनेंद्र की अन्य नायिकाओं की तरह त्याग शीला है। पर थोड़ी सी अलग, जहाँ जैनेद्र के अन्य उपन्यासों के नायिकाएँ आत्मदमन सहकर प्रेम को छोड़, परिवार को चुनती है। वहीं सुनीता बोल्ड है, वह नही चाहती कि क्रांति का सेवक काम कुंठा जैसी छोटी वजह से बर्बाद हो जाए। एक बेहद बोल्ड फ़ैसला ले कर वह घर छोड़ एक रात निकल जाती है हरि प्रसन्न के साथ। और फिर करती है वापसी, क्योंकि वह जानती है कि हरी प्रसन्न अंततः पुरुष है, वह स्त्री को देवी के आदर्श से आगे नही देख पाएगा,उसमें नग्न सुनीता को देखने का साहस नही है,और यहाँ लगता है जैसे जैनेंद्र, सुनीता को नग्न देख कर हरि प्रसन्न के चोले में स्वयं भागे है। क्योंकि वह नही चाहते ऐसी बोल्ड नायिकाएँ । उन्हें चाहिए बलिदान,त्याग, जैसा त्यागपत्र की नायिका मृणाल करती है।
श्री कांत की क्या कहें। अद्भुत पति हैं। मुझे नही पता,जैनेद्र ने ऐसे पति का सृजन कैसे किया । मोहन राकेश जहाँ अपने समूचे लेखन कारण में स्त्रियों से पीड़ित हैं वही ज़ैनेद्र, न जाने क्यों श्री कांत के द्वारा अपनी ही पत्नी को बार बार उसकी अनिक्षा के बावजूद छोड़ जाने को बेताब। क्या ये वो गांधी हैं, जो बार - बार कस्तूरबा से उसकी इक्षा के विरुद्ध किसी मरीज़ का मूत्र साफ़ करवा रहे है। क्या श्री कांत, वह भारतीय पुरुष है,जो अपनी पत्नी का सतीत्व जाँचने के लिए आतुर है बार -बार। या फिर श्री कांत भी कोई काम कुंठित है, जो व्याकुल है परिवार की नीरस ज़िंदगी में अद्भुत प्रयोगों से। यह तो जैनेंद्र ही बता सकेंगे।मुझे यही लगता है कि श्री कांत, आज़ादी के आंदोलन के समय के मध्य वर्ग के प्रतीक है,जो यदि स्वयं सीधे -सीधे क्रांति में हिस्सा नही ले पा रहा,तो अपनी प्रिय से प्रिय को भी क्रांति के साधन स्वरूप लगा देना चाहत है। शायद श्री कांत चाहते ही हैं कि उनकी पत्नी, देशभक्त मित्र की यह कुंठा दूर कर दे और क्रांति वीर बने हरि प्रसन्न। पर ऐसा विश्लेषण मेने नही पढ़ा । यह मेरी समझ है क्योंकि न जाने कितनी बार उपन्यास में श्री कांत, सुनीता से, हरी प्रसन्न का ख़याल रखने,उसकी चेतना को बचाए रखने और न जाने कसी गुमनाम से बलिदान के लिए कह रहे हैं।
अलग है न ये उपन्यास। यह 1935 में प्रकाशित हुआ। हिंदी साहित्य में तब प्रेमचंद के सामाजिक यथार्थवाद का बोलबाला था। समानांतर प्रसाद की रोमांटिक दृष्टि भी कहनियों में सक्रिय थे।। यशपाल ने जहाँ प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाया,वहीं जैनेद्र ने प्रसाद की। पर जहाँ प्रसाद का मानसिक विश्लेषण गहरा वैज्ञानिक न होने की बजाय रूमानी था,वहीं जैनेद्र ने अपने उपन्यासो में मनोविश्लेशन की परंपरा को गहरा वैज्ञानिक आधार दिया। उसी की की उपज है -परख, सुनीता और त्यागपत्र। अंतिम बात यही है कि जैनेद्र किस किरदार में जीवित हैं । जहाँ तक ‘सुनीता’ की बात है वह बस उनके प्रयोगशाला की एक इकाई है। वह हरी प्रसन्न और श्री कांत में एक हो सकते है। हिंदी साहित्य की आलोचना परंपरा में उन्हें हरी प्रसन्न के भीतर देखा गया है लेकिन मेरा मानना है की लेखक कभी पूरा एक किरदार नही होता,वह सबके हिस्से से थोड़ा थोड़ा बोलता है।
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