फ़िल्म 'धमाका' ने सत्ता की वही ढीठता दिखाई है,जो मोदी ने 700 किसानो की मौत पर

फ़िल्म धमाका का आख़िरी द्र्श्य। एंकर कहता है - 'यह सच नही है ।' सम्पादक कहती है - 'यह न्यूज़  है' । इसके बाद इसी दृश्य में  एंकर की मृत्यु हो जाती है। बस यही एक मात्र दृश्य 'धमाका' फ़िल्म का हाशिल है। वह हर कोई, जो आज सत्ता की गोदी में बैठ कर ख़बरों को दबा रहा हो, वह,जो गिरते पुलों ,मरते किसानों के बीच अपनी चैनल की TRP ताड़ने में लगा हो , सत्ता एक दिन उसकी भी जान ले लेगी। एक दिन वह भी 'सत्ता के सुपर ऑर्डर' का शिकार बनेगा,जैसे इस  फ़िल्म में  अर्जुन पाठक बना है। इस अनचाहे बेढ़ब से संदेश को  छोड़ दें, तो फ़िल्म अपने कहने के तरीक़े में बुरी तरह असफल रही है। कैसे?



किसी फ़िल्म को समझने के दो ही मुख्य टूल हैं। पहला -कहा क्या गया है यानी फ़िल्म का कंटेंट, दूसरा,कहा कैसे गया है -यानी 'फ़िल्म का फ़ॉर्म। फ़िल्म जो 'मुख्य रूप से'  कहना चाहती है, वह कितना महान है, बड़ी बात ये नही है। बड़ी बात ये है,कि क्या वह इस तरह बनाई गयी है कि जो भी वह कहना चाहती है,उसमें वह कितनी सफल हुई है। नेटफलिक्स पर आई 'धमाका' इसी मामले में सबसे कमज़ोर साबित हुई है। फ़िल्म का कंटेंट 'न्यूज़ चैनलों का TRP प्रेम, ख़बरें दबा देने की चालू  जुगत, न्यूज़ चैनलों की आपसी होड़ और उनके दफ़्तरों में दिखने और बिकनी की भीतरी राजनीति, बेशर्म सत्ता की ढीठता को दिखाना ही रहा है,लेकिन फ़िल्म ने इसे जिस तरह दिखाया है,वह  स्थाई भरोसा नही पैदा करता, देर तक रहने वाला प्रभाव नही छोड़ता बल्कि  ऊपरी सतह पर हल्की सी सनसनी छोड़ कर अस्त हो जाता है। यह ऊपरी छुअन भर का प्रभाव इस फ़िल्म की कमज़ोर बनावट का आउटकम  है।

जो लोग न्यूज़ चैनलों में काम करते हैं, वह जानते हैं कि वहाँ ऐसे समय में जब कोई 'गहरी वारदात' होती है,भीतरी माहौल यानी न्यूज़ रूम में किस तरह की गर्मजोशी और गति आ जाती है। वहाँ तब प्राइम टाइम में  एंकर बदले नही जाते। ईयर पीस में बम होने की आशंका  नही रहती ।माहौल एक अर्थ में जीवंत हो जाता है और सौदेबाज़ियाँ इस तरह नही होती, जैसी फ़िल्म में दिखा दी गयी है।  सत्ता अपना काम तब भी करती है,पर बहुत बारीकी से। फ़िल्म न्यूज़रूम के इस यथार्थ को सेट पर उतारने में असफल रही है। 'धमाका' ने न्यूज़ रूम का सेट बनाया है , पर लगता है कि यह कार्तिक आर्यन के दिमाग़ का अपना सेट है। उन्हें फ़िल्म बनाने से पहले न्यूज़रूम में धीरता से शोध -साधना करनी थी। हालाँकि,वह न्यूज़ रूम गए,लेकिन बाद में, जब फ़िल्म का प्रमोशन करना था। 

डायरेक्टर राम माधवानी के पास कार्तिक ख़ुद यह फ़िल्म ले कर गए थे।कुल 10 साल के करियर में 11 फ़िल्मे कर चुके कार्तिक अपनी 50 फ़ीसदी से ज़्यादा औसत सफलता के  क़रीब हैं। इसके बावजूद न जाने क्यों गहरी फ़िल्में करने की इक्षा के बावजूद वहाँ तक वह नहीं पहुँच पा रहे हैं, जहाँ कोई दर्शक को भाव -बोध तक जगा  देता है । यदि कंटेंट  ख़ुद चुन रहे हैं तो उन्हें रिसर्च में जल्दबाज़ी नही करनी चाहिए। फ़िल्म का लेखन इतना अस्त -व्यस्त है कि नए परिवेश में पुराने संवादो के ज़रिए आगे बढ़ने की कोशिश करता है -मसलन - ' जो कहूँगा,सच कहूँगा' । कह सकते हैं कि न्यूज़ के व्यपार और गिरते पत्रकारिता के स्तर पर लगातार बनती आ रही ग़ैर यथार्थ सी फ़िल्मों की परंपरा में चली आ रही घटिया फ़िल्मों में एक फ़िल्म और जुड़ गई है। फ़िल्म की सार्थकता यही है कि न्यूज़ चैनलों पर बनने वाली  परम्परागत कहानियों से यह कहानी थोड़ी अलग है ।हालंकि इसकी एक वजह यह भी है कि यह  कोरियाई फ़िल्म द टेरर लाइव का अपना बालीवुड वर्जन है। हिंदी सिनेमा की मुख्य धारा वैसे भी कभी युगीन यथार्थ में साक्षात परदे पर उतारने की हिमाक़त करने से बचती रही है। कुछ डर से भी, कुछ मेहनत की क़िल्लत से भी। हालंकि अपवाद स्वरूप कुछ कम चर्चित बढ़िया फ़िल्में बनी हैं। 

सत्ता की ढीठ दिखाना इस फ़िल्म की दूसरी सार्थकता है। फ़िल्म इंड हो जाती है लेकिन मंत्री जी सेट पर नही दिखाई देते। अच्छा हुआ कि मोदी ने तीन बिल वापस ले लिए। ख़ैर,  सच है कि आज उनके जान की कोई क़ीमत नही है, जो हमारे लिए इमारतें,पुल बनाते हैं। 700 किसानों की जान की सिर्फ़ यह सही क़ीमत नही है कि आज चुनाव देखकर राजा को लगा है कि बिल वापस ले लेने चाहिए थे। कुछ -कुछ सत्ता की वैसी ढीठता इस फ़िल्म में दिखाई तो गई है,लेकिन जीवन के किसी भी कोने का यथार्थ विन्यास सेट पर उतारने में फ़िल्म असफल रही है। मत देखिए।


Ashutosh Tiwari 

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