निर्मल वर्मा की किताब 'तीन एकांत' आप क्यों पढ़ें?

 निर्मल की क़लम , एकांत की दुर्लभ ज़ुबान है। वह मौन की मुखरता के लेखक हैं , अकुलाहट की धीरता के शिल्पी। वह भारत की प्राचीन मनीषा में एकांत की पदचाप सुन कर उसे आधुनिक मन की अजनबी हो जाने की पीड़ा से जोड़ सकने के सम्भावना के लेखक हैं। वह अविलंब इंतज़ार की स्मृति हैं। जब हिंदी साहित्य के लगभग सभी आंदोलन 60 के बाद आज़ादी के बाद मोहभंग  की हताशा में डूबे थे, निर्मल अपने अनुवादों के ज़रिए  भारत में नाज़ी आतंक की ज़मीन गढ़ रहे थे। 




उनकी किताब 'तीन एकांत' दरअसल उनकी उन कहानियों  का नाटकों में चुनौती भरा तर्जुमा है,जिनको पढ़ते हुए आप  सोच भी नही  सकते कि इनमे नाटकीयता की सम्भावना है। नाटकीयता की बुनियादी माँग हैं,द्वन्द और अचानकता , वह दोनों  यहाँ नही हैं। तीन कहनियाँ, एक आदमी ,जिसका इंतज़ार उसकी बिल्ली उसके घर पर कर रही है। एक औरत, जो उस इकलौते आदमी से  दूर हो गयी जो असल में जानता था कि दूर होना क्या होता  है। एक लड़की, जिसे एक तलाक़शुदा आदमी से प्यार है ,ये जानकर भी कि सब कुछ दोबारा वैसा नही होगा । इस किताब की ख़ास बात यह है कि तीनों कहनियाँ जैसे एक ही घर के अलग -अलग कमरों में घट रही हों और प्यारा  लेखक उनकी पीड़ा छू सकने की कोशिश में रात भर लालटेन ले कर उस घर में घूम  रहा हो।

पहली कहानी 'धूप का एक टुकड़ा' है । एक ऐसी औरत की कहानी, जिसने स्वाभिमान के साथ प्यार किया, स्वाभिमान के साथ अलग हुई और उदात्तता  के साथ वह अलगाव और  अकेलापन भी  स्वीकार किया जो किसी से दूर  हो जाने की अनिवार्य अभिव्यंजना है।वह पार्क की बेंच पर एक चुपचाप से बुज़ुर्ग के सामने, चर्च को साक्षी रख अपनी कहानी कह रही है। वह कुछ भी भूली नही है,गरिमा से बनाए गए रिश्ते भला कभी पीछा छोड़ सकते हैं और इस औरत को पीछा छुड़ाने की ख़्वाहिश भी नही है। वह उसे समय का एक सुंदर टुकड़ा मानती है। आधुनिक चेतना से भरी हुई औरत पीड़ा को गरिमा से स्वीकार कर अलग हो जाना जानती है,पर वह बीते वक़्त पर धब्बा नही लगाना चाहती । वह होशों हवाश से यह जानती है कि वह उस शख़्स से ही अलग हो गई है जो ठीक - ठीक उसे समझ सकता था । 

निर्मल स्वयं के साथ संवाद के संयोजक  हैं। अनंतर मौन में डूबे हुए द्वन्द के अभियंता । दूसरी कहानी ' डेढ़ इंच ऊपर' एक ऐसे शराबी आदमी की है, जो कि मेरे अनुमान मुताबिक़  शायद पहले ख़ुद को भुला देने तक शराब नही पीता रहा होगा। अब वह जीता और पीता है,यह भूलकर कि इनमे से वह क्या कर रहा है क्योंकि जीवन की विसंगतियों ने डूबने और बच जाने के बीच कोई अंतर नही छोड़ा है। यह कहानी निर्मल के पहचाने ढंग से अलग सी व्यथा कहती  है। यहाँ द्वितीय विश्व युद्ध का सामाजिक यथार्थ बोलता है, जहाँ उन जर्मनो को भी नही छोड़ा गया,जो कम्युनिस्ट थे। हर आदमी अपने साथ एक दुनिया ले कर चलता है। सत्ता किसी एक की जान लेती है लेकिन उस  मासूम परिवार की पूरी दुनिया बदल जाती है,जिसका अब तक वह एक राज़दार हिस्सा था। यह कहानी व्यक्ति के भीतरी राग और सत्ता के आतंक का अनुभूतिमय  समीकरण लिखती है।

वीक एण्ड भी इसी तरह आधुनिक संवेदना की कहानी है, जहाँ मजबूरियाँ, चाहतें और आदमी की त्रासदियाँ हैं। वीक एण्ड की नायिका उस दुःख की सहयात्री है,जिसके बारे में वह कहती है-   " "बँटने से वह छोटा नही होता, बड़ा भी नही होता। सिर्फ़ साफ़ हो जाता है - चमकीला और साफ़ " ।

तीनों कहानियाँ  कमोबेश स्मृति से ही अपना आकार  ग्रहण करती हैं। तीनों ही कहानियों  के किरदार अपने अतीत को वर्तमान में जीते है। गढ़ते हैं। उसके साथ सुलह करने की गरिमा पूर्ण कोशिश भी करते हैं । पर आप भी जानते हैं कि आदमी की त्रासदियाँ क्या इतनी आसान हैं। क्या उन्हें हल मिल पाएगा? चाह हो तो पढ़ जाइए, और ज़्यादा मनुष्य हो कर निखेरेंगे। पश्चाताप अपने भीतर के एकांत में बैठ कर की गई सबसे प्रभावशाली साधना है। 

(नोट : मैं इसे और ज़्यादा लिखना चाहता था । आपके समय का भी ख़याल रखना था तो ज़्यादा नही लिखा। अगर आप निर्मल की दूसरी किताबों पर भी ब्लॉग पढ़ना चाहते हैं तो कमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएँ। समय की सिसक  है कि एकांत पढ़ा जाए। )


आशुतोष तिवारी 

Facebook Page - Click here 




 

टिप्पणियाँ