मैने 9वीं क्लास से ही डायरी लिखने की कोशिश की थी। ढेर साहित्यिक न होते हुए भी यदा -कदा आप ने भी यह प्रयोग तो किया ही होगी। हम लिखते हैं और देखते हैं कि पन्नों पर कुछ - कुछ अपना जीवन उभर आया है। छिपाए गए क़िस्से, ख़ुद के गुरेज़ और लालसाओं का एक गुलदस्ता। ज़िंदगी एक फ़िक्शन सी इन पन्नो में रवाँ होती है। लेकिन क्या यह टेक्स्ट सभी के काम का हो सकता है।इसी वजह से अपनी डायरी हम स्वयं पढ़ते हैं। डायरी जैसी निजी वैयक्तिक विधा तभी सब की सामग्री हो सकती है,जब उसमें सभी के अनुभव साध लेने की ईमानदार साधना की गयी हो,वो भी डायरी के अनिवार्य नजीपन से बिना जी चुराए। रमेश चंद्र शाह की डायरी ‘अकेला मेला’ ऐसी ही रचना है।
रमेश चंद्र शाह जी की डायरी भी सार्वजनिक पठनीय इसलिए भी बन सकी है क्योंकि उनके निजीपन के दस्तावेज़ भी निर्मल वर्मा, अज्ञेय, विपिन अग्रवाल, राम कुमार, सर्वेश्वर, कुँवर नारायण व अशोक वाजपेयी जैसे मित्रों की संगत निहित हैं। यह लोग हिंदी साहित्य के स्तंभ पुरुष है। लेखक इनके साथ मित्र की तरह रहे हैं -एक ईमानदार साहित्यिक मित्र,जो अपने और आप के इन सबसे धीमे धीमे कुछ चुरा रहा है । भले ही दोस्ती बेहद निजीपन से भरी ही फिर भी हम इस किताब में संस्मरण नुमा क़िस्से नहीं पाते, बल्कि पाते हैं कि
- एक साहित्यकार कैसे सोचता है?
- उसकी रचना प्रक्रिया क्या होती है?
- एक साहित्यिक का आंतरिक संघर्ष क्या है?
- साहित्य को ले कर जो मौजूँ घटनाएँ 20वीं शताब्दी के 9 वें दशक में हुई हैं, उनका सार क्या था -
- इसके अलावा लेखक ने जो सबसे शानदार काम किया है, वह है अपने अध्ययन में शामिल किताबों के नोट्स बिंदुवार ढंग से डायरी में दर्ज करना।
ऊपर बतायी गयी इन्ही ख़ासियतों से यह डायरी बेहद शानदार पढ़ने योग्य ज्ञान के सूर्य सी रचना बन साहित्य -क्षितिज पर उदित हुई है। कई रोचक प्रसंग और चौंकाते तथ्य हैं जो इस किताब को पढ़ कर पता चलते हैं।
1- भारतीय ज्ञान परम्परा पर कई विचरोत्तेजक लेख है। भारतीय कला, दर्शन और चिंतन की यूरोप के बरख्श कई समीक्षायें इस डायरी में दर्ज हैं।
2-- जैनेंद्र को ले कर समकालीन लेखकों के विचार उनके विषय में ठीक -ठिकाने नही बैठते थे। वैचारिक स्तर स्तर पर अज्ञेय,निर्मल और स्वयं लेखक भी उन्हें दिग्भ्रमित मानते थे। इसके वाजिब तर्क दिए गए हैं।
3 - निर्मल वर्मा को एकाकी सैर पसंद थी। यह उनकी रचना प्रक्रिया का हिस्सा थी पर इसके बाद वह लम्बी बहस कर सकते थे। उन्हें भारतीय उपन्यास में एक गहरी अंतस भारतीय फ़ॉर्म की तलाश थी । वह यूरोपीय मानस से आई भारतीय मन में फाँक के प्रति दैनिक संवादों में भी विचलित रहते थे। निर्मल, फ़्रायड को जुंग के अपेक्षा ज़्यादा तरजीह देते थे।
4- अज्ञेय की छवि भले ही एक चुप्पा की हो,लेकिन वह लेखक के साथ काफ़ी मुखर थे। इसलिए इसे पढ़कर हम कई साहित्यिक समझों और बहसों के साक्षी बन सकते हैं,जिनका ज़िक्र शायद अज्ञेय ने लिखित तौर पर अपनी किताबों में नहीं किया है ।
4- उस समय भी देश को रेप और बाल मज़दूरी जैसी दुर्घट बीमारियाँ घेरे थीं। उस समय भी स्वामी अग्निवेश सामाजिक मुद्दों को ले कर सक्रिय थे।
इसके अलावा रिल्के, हक़सले,येट, के सी भट्टाचार्य, गांधी आदि के चिंतन से भी हम भली भाँति परिचित होते हैं, क्योंकि लेखक ने नोट्स नुमा अन्दाज़ में सबके विचार पेश किए हैं।
यदि आप साहित्य के विद्यार्थी है या साहित्य -संसार में रुचि रखते हैं, तो यह किताब आपको अवश्य पढ़नी चाहिए। बहती हुई ज्ञान सम्पदा है,जितना डूबेंगे,उतना पाएँगे। किताब में पहली इंट्री 3 जुलाई 1969 और फिर दूसरी -6 फ़रवरी 1980 । यहाँ से ले कर 1 अक्टूबर 1986 तक की इंट्री फिर लगातार हैं।डायरी का प्रथम संस्करण 2009 में प्रकाशित हुआ। यह किताब वीरेंद्र कुमार जैन और मुक्तिबोध को समर्पित है। इस रचना को रमेश चंद्र शाह ने इसे अपनी डायरी का प्रथम भाग बताया है।
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